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________________ बालक के निर्माण में माता-पिता का हाथ: माता-पिता यदि बालक में नैतिकता को उभारना चाहते हैं, तो उन्हें अपने घर को भी पाठशाला का रूप देना चाहिए। बालक पाठशाला से जो पाठ सीख कर आए, घर उसके प्रयोग की भूमि तैयार करे। इस प्रकार उसका जीवन भीतर-बाहर से एकरूप बनेगा और उसमें उच्च श्रेणी की नैतिकता पनप सकेगी। तब कहीं वह अपनी जिन्दगी को शानदार बना सकेगा। ऐसा विद्यार्थी जहाँ कहीं भी रहेगा, वह सर्वत्र अपने देश, अपने समाज और अपने माता-पिता का मुख उज्ज्वल करेगा। वह पढ़-लिख कर देश को रसातल की ओर ले जाने का, देश की नैतिकता का ह्रास करने का प्रयास नहीं करेगा, देश के लिए भार और कलंक नहीं बनेगा, बल्कि देश और समाज के नैतिक स्तर की ऊँचाई को ऊँची-से-ऊँची चोटी पर ले जाएगा और अपने व्यवहार के द्वारा उनके जीवन को भी पवित्र बना पाएगा। पिता-पुत्र का संघर्ष : आज के विद्यार्थी और उनके माता-पिता के मस्तिष्क में बहुत बड़ा विभेद खड़ा हो गया है। विद्यार्थी पढ़-लिख कर एक नये जीवन में प्रवेश करता है, एक नया स्पन्दन लेकर आता है, अपने भविष्य-जीवन को अपने ढंग से बिताने के मंसूबे बाँध कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है। परन्तु, उसके माता-पिता पुराने विचारों के होते हैं। उन्हें न तो अपने लड़के की जिज्ञासा का पता चलता है और न वे उस ओर ध्यान ही दे पाते हैं। वे एक नये गतिशील संसार की ओर सोचने के लिए अपने मानस-पट को बन्द कर लेते हैं। पर, जो नया खिलाड़ी है, वह तो हवा को पहचानता है। वह अपनी जिज्ञासा और अपने मनोरथ पूरे न होते देखकर पिता से संघर्ष करने को तत्पर हो जाता है। आज अनेक घर ऐसे मिलेंगे, जहाँ पिता-पुत्र के बीच आपसी संघर्ष चलते रहते हैं। पुन अपनी आकांक्षाएँ पूरी न होते देख कर जीवन से हताश हो जाता है, फलतः कभी-कभी चुपके-से घर छोड़कर पलायन भी कर जाता है। आए दिन अखबारों में छपने वाली 'गुमशुदा की तलाश' शीर्षक सूचनाएँ बहुत-कुछ इसी संघर्ष का परिणाम है। कभी-कभी आवेश में आकर आत्मघात करने की नौबत भी आ पहुँचती है, ऐसी अनेक घटनाएँ घट चुकी है। दुर्भाग्य की बात समझिए, कि भारत में पिता-पुत्र के संघर्ष ने गहरी जड़ जमा ली है। माता-पिता का दायित्व : आज की इस तीव्रगति से आगे बढ़ती हुई युगधारा के बीच प्रत्येक माता-पिता का यह कर्तव्य है कि वे इस गतिधारा को पहचानें। वे स्वयं जहाँ है, वहीं अपनी सन्तान को रखने की अपनी व्यर्थ की चेष्टा का त्याग कर दें। ऐसा नहीं करने में स्वयं उनका और उनकी सन्तान का कोई भी हित नहीं है। अतएव आज प्रत्येक माता-पिता को चाहिए कि वे अपनी सन्तान को अपने विचारों में बांध कर रखने का प्रयत्न न करें, उसे युग के साथ चलने दें। हाँ, इस बात को सावधानी अवश्य रखनी चाहिए कि सन्तान कहीं अनीति की राह पर न चल पड़े। परन्तु, इसके लिए उनके पैरों में बेड़ियाँ डालने की कोशिश न करके उसे सोचने और समझने की स्वतन्त्रता दी आनी चाहिए और अपना पथ प्राप प्रशस्त करने का प्रयत्न उन्हें करने देना चाहिए। बालकों का दायित्व : मैं बालकों से भी कहूँगा कि वे ऐसे अवसर पर आवेश से काम न लें। वे अपने मातापिता की मानसिक स्थिति को समझें और अपने सुन्दर, शुभ एवं प्रगतिशील विचारों पर दृढ़ रहते हुए, नम्रतापूर्वक उन्हें सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करें, परन्तु साथ ही माता-पिता को भी कष्ट न पहुँचाएँ। शान्ति और धैर्य से काम लेने पर अन्त में उन सद्विचारों की प्रगतिशीलता की ही विजय होगी। ३७६ पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212390
Book TitleVidyarthi Jivan Ek Navankur
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size1 MB
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