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________________ शरीर की इन विभिन्न अवस्थानों के देखने और जानने से विचार प्राता है कि मनुष्य इतने अपवित्र शरीर पर भी प्रासक्ति और ममता क्यों करता है ? अशुचि भावना का चिन्तन मनुष्य को राग से विराग की ओर ले जाता है। संवेग और वैराग्य : ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने मन को सदा संवेग और वैराग्य में संलग्न रखे। किन्तु, प्रश्न होता है कि मनुष्य के मानस में संवेग और वैराग्य की भावना को स्थिर कैसे किया जाए? इसके समाधान में प्राचार्य उमास्वाति ने स्वप्रणीत 'तत्त्वार्थ-भाष्य' के सातवें अध्याय में वर्णन किया है कि-संवेग और वैराग्य को स्थिर करने के लिए ब्रह्मचर्य के साधक को अपने मानस में शरीर और जगत् के स्वभाव का चिन्तन करते रहना चाहिए। जगत् अर्थात् संसार का चिन्तन इस प्रकार करना चाहिए कि यह संसार षड्द्रव्यों का समूह रूप है। द्रव्यों का प्रादुर्भाव और तिरोभाव-उत्पाद और विनाश निरन्तर होता रहता है। संसार का स्वभाव है-बनना और बिगड़ना । संसार के नाना रूप दृष्टिगोचर होते हैं। उनमें से किसको सत्य मानें! संसार का जो रूप कल था, वह आज नहीं है और जो आज है, वह कल नहीं रहेगा। यह विश्व द्रव्य रूप में स्थिर होते हुए भी पूर्व पर्याय के विनाश और उत्तर पर्याय के उत्पाद से नित्य निरन्तर परिवर्तनशील है। इस संसार में एक भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जो क्षणभंगुर और परिवर्तनशील न हो। जब संसार का एक भी पदार्थ स्थिर और शाश्वत नहीं है, तब भौतिक तत्त्वों से निर्मित यह देह और उसका रूप स्थिर और शाश्वत कैसे हो सकता है? बाल अवस्था में जो शरीर सुन्दर लगता है, यौवनकाल में जो कमनीय लगता है, वही तन वृद्धावस्था में पहुँचकर अरुचिकर, असुन्दर और घृणित बन जाता है। फिर इस तन पर ममता करने से लाभ भी क्या है ? तन की इस ममता से ही वासना का जन्म होता है, जो ब्रह्मचर्य को स्थिर नहीं रहने देती। अतः तन की ममता को दूर करने के लिए साधक को शरीर और संसार के स्वभाव का चिन्तन करते रहना चाहिए। दुःख-भावना : आचार्य उमास्वाति ने अपने 'तत्त्वार्थ-भाष्य' में ब्रह्मचर्य की स्थिरता के लिए दुःखभावना का वर्णन भी किया है। कहा गया है--“मैथुन-सेवन से कभी सुख प्राप्त नहीं होता। जैसे खजली होने पर मनष्य उसे खजलाता है. खजलाते समय कुछ काल के लिए उसे सुखानुभूति अवश्य होती है, किन्तु फिर चिरकाल के लिए उसे दुःख उठाना पड़ता है। खुजलाने से खाज में रक्त बहने लगता है और फिर पीड़ा भी भयंकर होने लगती है। इसी प्रकार विषय-सुख के सेवन से क्षण भर के लिए स्पर्शजन्य सुख भले ही प्राप्त हो जाए, किन्तु उस सुख की अपेक्षा व्यभिचार करने से मनुष्य को दुःख ही अधिक उठाना पड़ता है। यदि परस्त्री गमन रूप अपराध करता हुआ पकड़ा जाता है, तो समाज' और राज्य उसे कठोर से कठोर दण्ड देने का विधान करता है। लोक में उसका अपवाद और अपयश फैल जाता है। कभी-कभी तो इस प्रकार के अपराधी के हाथ, पैर, कान और प्रजनन इन्द्रिय आदि अवयव का छेदन भी करा दिया जाता है। अब्रह्मचर्य के सेवन से प्राप्त होने वाले ये दुःख तो इसी लोक के है, किन्तु परलोक में तो इनसे भी कहीं अधिक भयंकर दुःख-पीड़ा और संत्रास प्राप्त होते हैं। मथुन व्यभिचार और प्रब्रह्मचर्य के सेवन से प्राप्त होने वाले इन दुःखों का चिन्तन करने से मनुष्य मैथुन से विरत हो जाता है, व्यभिचार का परित्याग कर देता है।" प्राचार्य उमास्वाति ने इसीलिए कहा है कि निरन्तर दोषों का चिन्तन करो। उससे प्राप्त होने वाले दु:ख और क्लेशों का विचार करो। इस प्रकार के विचार से और मैथुन के रोग-दर्शन' से वासना शान्त हो जाती है और ब्रह्मचर्य का पालन • सुगम हो जाता है। पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212380
Book TitleBramhacharya Sadhna Ka Sarvoccha Shikhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size1 MB
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