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________________ इसी प्रकार, जो सरलता के मार्ग की ओर जीवन को लगा देता है, जिसका जीवन खुली पुस्तक है, स्पष्ट है कि वह सत्य का महान् उपासक है। चाहे कोई दिन में देख ले या रात में, चाहे कोई एकान्त में परखे या हजार आदमियों में। उसका जीवन सत्य-निष्ठ वह जीवन है, जो अकेले में रह रहा हो, तब भी वही रूप है, वही काम है और हजारों के बीच में रह रहा है, तब भी वही रूप है, वहीं काम है। श्रमण भगवान महावीर ने कहा है-“तू कहीं अकेला है और वहाँ कोई तुझे देखने वाला, पहचानने वाला नहीं है, तुझ पर कोई अंगुली उठाने वाला नहीं है, तो तू क्यों सोचता है कि ऐसा या वैसा क्यों न कर लं, यहां कौन देखने बैठा है ? सत्य तेरे आचरण के लिए है, तेरे मन में उभरने वाली विकृति को दूर करने के लिए है। अतः तू अकेला बैठा है, तब भी उस सत्य की पूजा कर और हजारों की सभा में बैठा है, तब भी उसी सत्य का अनुसरण कर । यदि लाखों-करोड़ों की संख्या में जनता बैठी है, तो उसे देख कर तुझे अपनी राह नहीं बदलनी है। यह क्या, जनता की आँखें तुझे घूरने लगे, तो तू राह बदल दे ? सत्य का मार्ग बदल दे। नहीं, तुझे सत्य की ही ओर चलना है और हर स्थिति में सत्य ही तेरा उपास्य होना है।" सत्य की चरम परिणति : जब मनुष्य सर्वज्ञता की भूमिका पर पहुँचता है, तभी उसका ज्ञान पूर्ण होता है, तभी उसे अनन्त उज्ज्वल प्रकाश मिलता है, तभी उसे परिपूर्ण यथार्थ सत्य का पता लगता है। किन्तु, उससे नीचे की जो भूमिकाएँ हैं, वहाँ क्या होता है ? जहाँ तक विचार-शक्ति साथ देती है, साधक को निष्ठा के साथ सत्य का प्राचरण करना है। फिर भी संभव है, सोचते-सोचते, विचार करते-करते ऐसी धारणाएँ बन जाए, जो सत्य के विपरीत हों। किन्तु, जब कभी यथार्थ सत्य का पता चले और भूल मालूम होने लगे, यह समझ में आ जाए कि यह बात गलत है, तो उसे एक क्षण भी मत रखो, तत्क्षण सत्य को ग्रहण कर लो। गलती को गलती के रूप में स्वीकार कर लो--यह सत्य की दृष्टि है, सम्यक दृष्टि की भूमिका है। सत्य की भूमिका : छठे गुणस्थान में सत्य विराट् होकर महाव्रत होता है, किन्तु वहाँ पर भी गलतियां और भूलें हो जाती है। पर, गलती या भूल हो जाना एक बात है और उसके लिए प्राग्रहदुराग्रह होना दूसरी बात । सम्यक्-दृष्टि भूल करता हुआ भी उसके लिए आग्रहशील नहीं होता, उसका आग्रह तो सत्य के लिए होता है। वह असत्य को असत्य जान कर कदापि आग्रहशील न होगा। जब उसे सत्य का पता लगेगा, तब वह अपनी प्रतिष्ठा को खतरे में डाल कर भी स्पष्ट शब्दों में कहेगा--"पहले मैंने भ्रान्तिवश ऐसा कहा था, इस बात का समर्थन किया था। किन्तु, अब यह सत्य सामने आ गया है, अतः इसे कैसे अस्वीकार करूँ ?" इस प्रकार वह तत्क्षण भूल का परित्याग कर, सत्य को स्वीकार करने हेतु उद्यत हो जाएगा। इसका अभिप्राय यह है कि जहाँ पक्ष-मुक्त सम्यक-दृष्टि है, वहाँ सत्य है। जीवन-यात्रा के पथ में कहीं सत्य का और कहीं असत्य का ढेर नहीं लगा होता है कि कोई उसे बटोर कर ले आए। सत्य और असत्य, तो मनुष्य की अपनी दृष्टि में रहता है। इसी बात को श्रुतधर देववाचक प्राचार्य ने शास्त्रों के सत्यासत्य की चर्चा करते हुए नन्दी सूत्र में कहा है १. दिपा बा, राओ वा, एगओ वा, परिसागओ बा, सुते वा, जागरमाणे वा। -दशवकालिक सूत्र, अध्य० ४ भगवत्ता : महावीर की दृष्टि में २७६ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212378
Book TitleBhagwatta Mahavir Ke Drushti Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size896 KB
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