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________________ कोई जैन हो या जैनेतर हो, मूर्ति-पूजा करने वाला हो या न हो, अधिकांशतः वह अपनी शक्ति का उपयोग एकमात्र ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए ही कर रहा है, उसमें वह न न्याय को देखता है, न अन्याय को । हम देखते हैं और कोई भी देख सकता है कि भक्त लोग मन्दिर में जाकर ईश्वर को अशर्फी चढ़ाएँगे और हजारों-लाखों के स्वर्ण मुकुट पहना देंगे, किन्तु मन्दिर से बाहर आएँगे तो उनकी सारी उदारता न जाने कहाँ गायब हो जाएगी ? मन्दिर के बाहर द्वार पर, गरीब लोग पैसे पैसे के लिए सिर झुकाते हैं, बेहद मिन्नतें और खुशामदें करते हैं, धक्का-मुक्की होती है; परन्तु ईश्वर का वह उदार पुजारी मानो आँखें बन्द करके, नाक-भौंह सिकोड़ता हुआ और उन दरिद्रों पर घृणा एवं तिरस्कार बरसाता हुआ, अपने घर का रास्ता पकड़ता है। इस प्रकार जो पिता है--उसके लिए तो लाखों के मुकुट अर्पण किए जाते हैं, किन्तु उसके लाखों बैटों के लिए, जो पैसे पैसे के लिए दर-दर भटकते फिरते हैं, कुछ भी नहीं किया जाता। उनके जीवन की समस्या को हल करने के लिए तनिक भी उदारता नहीं दिखलाई जाती । जन-साधारण के जीवन में यह विसंगति आखिर क्यों है ? कहाँ से आई है ? आप विचार करेंगे, तो मालूम होगा कि इस विसंगति के मूल में सत्य को स्थान न देना ही है । क्या जैन और क्या जैनेतर, सभी आज बाहर की चीजों में उलझ गए हैं। परिणाम स्वरूप पूजा की धूमधाम मचती है, क्रिया काण्ड का आडम्बर किया जाता है, आराध्य को प्रसन्न करने का प्रयास किया जाता है, कभी भगवान् को, तो कभी गुरुजी को रिझाने की चेष्टाएँ की जाती हैं, और ऐसा करने में हजारों-लाखों की संपत्ति स्वाहा हो जाती है। लेकिन आपका कोई साधारण सजातीय. या अन्य जातीय भाई है, वह जीवन के कर्तव्य पथ पर जूझ रहा है, उसे समय पर यदि थोड़ी-सी भी सहायता मिल जाए, तो वह जीवन के लक्ष्य पर पहुँच सकता है और अपना तथा अपने परिवार का यथोचित निर्माण कर सकता है: किन्तु खेद है, उसके लिए आप कुछ भी नहीं करते । ता यह है कि जब तक सत्य को जीवन में नहीं उतारा जाएगा, सही समाधान नहीं मिल सकेगा, जीवन में व्याप्त अनेक प्रसंगतियाँ दूर नहीं की जा सकेंगी और सच्ची धर्म-साधना का फल भी प्राप्त नहीं किया जा सकेगा । सत्य का सही मंदिर : अन्तर्मन : लोग ईश्वर के नाम पर भटकते-फिरते थे और देवी-देवताओं के नाम पर काम करते थे, किन्तु अपने जीवन के लिए कुछ भी नहीं करते थे । भगवान् महावीर ने उन्हें बतलाया कि सत्य ही भगवान् है । भगवान् का यह कथन मनुष्य को अपने ही भीतर सत्य को खोजने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रेरणा थी । सत्य अपने अन्दर ही छिपा है । उसे कहीं बाहर ढूंढ़ने के बजाय भीतर ही खोजना है । जब तक अन्दर का भगवान् नहीं जागेगा और अन्दर के सत्य की झाँकी नहीं होगी, भीतर का देवता तुम्हारे भीतर प्रकाश नहीं फैलाएगा, तब तक तुम तीन काल और तीन लोक में भी, कभी भी, कहीं पर भी, ईश्वर के दर्शन नहीं पा सकोगे कोई धनवान है, तो उसको भी बतलाया गया कि साधना अन्दर करो और जिसके पास एक पैसा भी नहीं, चढ़ाने के लिए एक चावल भी नहीं, उससे भी कहा गया कि तुम्हारा भगवान् भीतर ही है । भीतर के उस भगवान् को चढ़ाने के लिए चावल का एक भी दाना नहीं, तो न सही। इसके लिए चिन्तित होने की कोई जरूरत नहीं है । उसे चांदी-सोने की भूख नहीं है। उसे मुकुट और हार पहनने की भी लालसा नहीं । उसे नैवेद्य की कोई अपेक्षा नहीं है। एकमात्र अपनी सद्भावना के स्वच्छ और सुन्दर सुमन उसे चढाओ और हृदय की सत्यानुभूति से उसकी पूजा करो। यही उस देवता की पूजा की सर्वोत्तम सामग्री है, यहीं उसके लिए अनुपम अर्घ्य है । इसी से अन्दर का देवता प्रसन्न होगा । इसके विपरीत यदि बाहर की ओर देखोगे, तो वह तुम्हारा प्रज्ञान होगा। भीतर देखने पर २७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only पद्मा समिक्ar धम्मं www.jainelibrary.org.
SR No.212378
Book TitleBhagwatta Mahavir Ke Drushti Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size896 KB
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