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________________ सत्य को अन्तर में अनुभूति ही सच्ची अनुभूति : भारतीय-धर्म और दर्शन मानव-जीवन के लिए एक महत्त्वपूर्ण सन्देश लेकर आया है कि मानव, तू अन्दर में क्या है ? तू अन्तरतम में विराजमान महाप्रभु के प्रति सच्चा है, या नहीं। वहाँ सच्चा है, तो संसार के प्रति भी सच्चा है और यदि वहाँ सच्चा नहीं, तो संसार के प्रति भी सच्चा नहीं है। अन्तःप्रेरणा और अन्तःस्फूर्ति से, बिना दबाव या भय के, जब अपना कर्तव्य निभाया जाएगा, तो जीवन एकरूप होकर कल्याणमय बन जाएगा। दूसरी बात है---मनुष्य के हृदय में दया और करुणा की लहर पैदा होना। हमारे भीतर, हृदय के रूप में, माँस का एक टुकड़ा है। निस्सन्देह, वह मांस का टुकड़ा ही है और माँस के पिण्ड के रूप में ही हरकत कर रहा है। हमें जिन्दा रखने के लिए साँस छोड़ रहा है और ले रहा है। पर उस हृदय का मूल्य अपने-आप में कुछ नहीं है। जिस हृदय में महान् करुणा की दिव्य लहर पैदा नहीं होती, उस हृदय की कोई कीमत नहीं है। जब हमारे जीवन में समग्र विश्व के प्रति दया और करुणा का भाव जागत होगा, तभी प्रकृति-भद्रता उत्पन्न हो सकेगी। तभी हमारा जीवन भगवत्-स्वरूप हो सकेगा। प्रकृति-भद्रता अर्थात् दम्भ-मक्त सत्य, सत्य का ही व्यक्त रूप है। सत्य का विराट रूप: इस प्रकार समग्र समाज के प्रति सच्चाई के साथ कर्तव्य-बुद्धि उत्पन्न हो जाना, विश्व-चेतना का विकास हो जाना सत्य का विकास है और उसी सत्य को जैन-धर्म ने भगवान् के रूप में अभिहित किया है। यही मानव की भगवत्ता है, प्रकृति धर्म है। धर्म का मूल रूप सत्य है। सत्य, मानवता है और यह मानवता ज्यों-ज्यों विराट रूप ग्रहण करती जाती है, त्यों-त्यों उसका सत् भगवान् भी विराट् बनता चला जाता है। इस विराट्ता में जैन, वैदिक, बौद्ध, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई आदि का कोई भेद नहीं रहता। यही सत्य का स्वरूप है, और इसकी उपलब्धि मानव की विराट चेतना में ही होती है। 284 Jain Education International पन्ना समिक्खए धम्म For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212378
Book TitleBhagwatta Mahavir Ke Drushti Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size896 KB
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