________________ स्थिति ही नहीं होती, जो न द्रव्य से परिग्रह हो, न भाव से। क्योंकि परिग्रह आदि के मूल में दो ही तो रूप है, द्रव्य और भाव / इन्हीं के भावाभाव से अन्य भंग बनते हैं। जैन-दर्शन मूलतः भाव-प्रधान अनेकान्त-दर्शन है। अतः यहाँ साधना-पद्धति के बाह्याचार से सम्बन्धित विधि-निषेध भी एकान्त नहीं हैं। जैन-धर्म में बाह्याचार की विस्तार से स्थापना होते हुए भी अन्ततः भावपक्ष को ही प्रधानता प्राप्त है। साधक की आन्तरिक परिणाम-धारा में ही बन्ध और मोक्ष है। अन्तरंग चेतना का शुद्धत्व, अशुद्धत्व ही क्रम से व्यक्ति के उत्थान तथा पतन का मूल हेतु है। उपर्युक्त हिंसा-अहिंसा आदि से सम्बन्धित चतुभंगी की मीमांसा भी इसी अनेकान्त बोध पर आधारित है। शुद्ध अनेकान्त दृष्टि से मर्मज्ञ सुप्रसिद्ध जैनाचार्य पात्र-केशरी ने भी, देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति करते हुए, प्रस्तुत सन्दर्भ से ही सम्बन्धित जो महत्त्वपूर्ण विवेचना की है, वह प्रत्येक तत्त्वजिज्ञासु को लक्ष्य में रखने जैसी है। प्राचार्य देव का स्पष्ट उद्घोष है. "न चाऽसुपरिपीउनं नियमतोऽशुभायष्यते, त्वया न च शुभाय वा न हि च सर्वथा सत्यवाक् / न चाऽपि दम-दानयोः कुशल हेतुतकान्ततो, विचित्र नय--भंग जालगहनं त्वदीयं मतम् // " --पान केशरी स्तोत्रम् // 39 // -भगवन् ! आपके द्वारा, प्राणि परिपीडन अर्थात हिंसा एकान्तरूप से न तो शुभहेतुता के रूप में मान्य है और न अशुभ हेतुता के रूप में। इसी प्रकार वचन की सत्यता और असत्यता का शुभाऽशुभत्व भी सर्वथा एकांत नहीं है। दम अर्थात इन्द्रियादि निग्रह रूप संयम और दान आदि के सम्बन्ध में भी यही बात है। इनकी कुशल हेतुता भी एकान्त नहीं है। भगवन् ! आपका दर्शन' विभिन्न नय-दृष्टियों के विचित भंगजाल से अतीव गहन, गूढ है। नाचार्य पात्रकेशरी, जिन्हें अन्यत्र निखिलताकिक चूड़ामणि श्री विद्यानन्दि स्वामी के नाम से भी सम्बोधित किया है, कितना महान स्पष्ट प्रवक्ता प्राचार्य है / जिनकी दिव्य वाणी स्पष्टतः समुदघोषित करती है कि जिनेन्द्र देव की धर्मदेशना के गूढ़ रहस्य को अनेकान्त दृष्टि से ही समझा जा सकता है। प्राशा है प्रबुद्ध पाठक, बहुश्रुतशिरोमणि प्राचार्य जिनदास तथा प्राचार्य श्री हरिभद्र के स्यादवादी प्रवचनों पर आधारित प्रस्तुत लेख' को भी मान्यताओं के एकान्तवादी प्राग्रह से मुक्त हो कर अनेकान्त दृष्टि से ही समझने का सत्यानुलक्षी प्रयत्न करेंगे। 257 महाव्रतों का भंग-दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org