________________
आचार्य हरिभद्र का कथन है कि "द्रव्य क्षेत्र, काल आदि की अनुकूलता से युक्त 'समर्थ साधक के द्वारा किया जाने वाला कल्पनीय (शुद्ध) प्रन्नपानगवेषणादि-रूप उचित अनुष्ठान, उत्सर्ग है । और द्रव्यादि की अनुकूलता से रहित का यतनापूर्वक तथाविध प्रकल्प्य सेवनरूप उचित्त अनुष्ठान, अपवाद है ।'
394
आचार्य मुनिचन्द्र सूरि, सामान्य रूप से प्रतिपादित विधि को उत्सर्ग कहते हैं और विशेष रूप से प्रतिपादित विधि को अपवाद | अपने उक्त कथन का आगे चल कर वे और भी स्पष्टीकरण करते हैं कि समर्थ साधक के द्वारा संयमरक्षा के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है, वह उत्सर्ग है । और समर्थ साधक के द्वारा संयम की रक्षा के लिए ही जो बाहर में उत्सर्ग से विपरीत-सा प्रतीता होने वाला अनुष्ठान किया जाता है, वह अपवाद है। दोनों ही पक्षों का विपर्यासरूप से अनुष्ठान करना, न उत्सर्ग है और न अपवाद, अपितु संसाराभिनन्दी प्राणियों की दुश्चेष्टा मात्र है
आचार्य मल्लिषेण उत्सर्ग और अपवाद के सम्बन्ध
महत्त्वपूर्ण स्पष्टीकरण करते - " सामान्य रूप से संयम की रक्षा के लिए नवकोटि-विशुद्ध आहार ग्रहण करना, उत्सर्ग है । परन्तु यदि कोई मुनि तथाविध द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-सम्बन्धी आपत्तियों से ग्रस्त हो जाता है, और उस समय गत्यन्तर न होने से उचित यतना के साथ अनेषणीय आदि प्रहार ग्रहण करता है, यह अपवाद है । किन्तु, अपवाद भी उत्सर्ग के समान संयम की रक्षा के लिए, ही होता है ।""
एक अन्य आचार्य कहते हैं -- "जीवन में नियमोपनियमों की जो सर्वसामान्य विधि है, वह उत्सर्ग है । और, जो विशेष विधि है, वह अपवाद है । "".
किं बहुना, सभी प्राचार्यों का अभिप्राय एक ही है कि सामान्य उत्सर्ग है, और विशेष अपवाद है । लौकिक उदाहरण के रूप में समझिए कि प्रतिदिन भोजन करना, यह जीवन की सामान्य पद्धति है। भोजन के बिना जीवन टिक नहीं सकता है, जीवन की रक्षा के लिए उत्सर्गतः भोजन आवश्यक है । परन्तु, अजीर्ण आदि की स्थिति में भोजन का त्याग करना ही श्रेयस्कर है । किन्हीं विशेष रोगादि की स्थितियों में भोजन का त्याग भी जीवन की रक्षा के लिए आवश्यक हो जाता है। अर्थात् एक प्रकार से भोजन का परित्याग ही जीवन हो जाता है । यह भोजन सम्बन्धी अपवाद है । इसी प्रकार अमुक पद्धति का भोजन सामान्यतः ठीक रहता है, यह भोजन का उत्सर्ग है । परन्तु उसी पद्धति का भोजन कभी किसी विशेष स्थिति में ठीक नहीं भी रहता है, यह भोजन का अपवाद है ।
साधना के क्षेत्र में भी उत्सर्ग और अपवाद का यही क्रम है । उत्सर्गतः प्रतिदिन की साधना में जो नियम संयम की रक्षा के लिए होते हैं, वे विशेषतः संकटकालीन अपवाद स्थिति
५. दच्वादिहि जुत्तस्सुस्सग्गो चदुचियं प्रणुद्वाणं ।
रहियस्स तमवबाओ, उचियं चियरस्स न उ तस्स ।। उपदेश पद, गा० ७८४
६. सामान्योक्तो विधिरुत्सर्गः । विशेषोक्तस्त्वपवादः । द्रव्यादियुक्तस्य यत्तदौपिचित्येन अनुष्ठा स उत्सर्गः तद्रहितस्य पुनस्तदौचित्येनैव च यदनुष्ठानं सोऽपवादः । यच्चैतयोः पक्षयविपर्यासन अनुष्ठानं प्रवर्तते न स उत्सर्गोऽपवादो वा, किन्तु संसाराभिनन्दिसत्वचेष्टितमिति ।
-- उपदेशपद- सुखसम्बोधिनी, गा० ७८१-७८४ ७. आहार के लिए स्वयं हिंसा न करना, न करवाना, न हिंसा करने वालों का अनुमोदन करना । आहार आदि स्वयं न पकाना, न पकवाना, न पकाने वालों का अनुमोदन करना ।
आहार आदि स्वयं न खरीदना, न दूसरों से खरीदवाना न खरीदने वालों का अनुमोदन करना । --स्थानांङ्ग सूत्र ३,६८१ ८. यथा जैनानां संयमपरिपालनार्थं नवकोटिविशुद्धाहारग्रहणमुत्सर्गः । तथाविध द्रव्य क्षेत्र-कालभावापत्सु च निपतितस्य गत्यन्तराभावेपंचकादियतनया अनेषणीयादिग्रहणमपवादः । सोऽपि च संयमपरिपालनार्थमेव । - स्याद्वाद मञ्जरी, कारिका ११
६. सामान्योक्तो विधिरुत्सर्ग, विशेषोक्तो विधिरपवादः । - दर्शन शुद्धि
उत्सर्ग और अपवाद : दोनों ही मार्ग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
२२६ www.jainelibrary.org