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________________ उच्चार (शौच) और प्रस्रवण (मूत्र) करने के लिए बाहर जा सकता है । मलमूत्र का बलात निरोध करना, स्वास्थ्य और संयम दोनों ही दृष्टि से वर्जित है। मलमूत्र के निरोध में पाकुलता रहती है, और जहाँ प्राकुलता है, वहाँ न स्वास्थ्य है, और न संयम । वर्षा में बाहर-गमन के लिए केवल मलमूत्र का निरोध ही अपवादहेतु नहीं है, अपितु बाल, वृद्ध और ग्लानादि के लिए भिक्षार्थ जाना अत्यावश्यक हो, तब भी उचित यतता के साथ वर्षा में गमनागमन किया जा सकता है। योगशास्त्र की स्वोपज्ञ वृत्ति में प्राचार्य हेमचन्द्र ने इस सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख किया है। यही बात मार्ग में नदी-संतरण तथा दुर्भिक्ष आदि में प्रलम्ब-ग्रहण सम्बन्धी अपवादों के सम्बन्ध में भी है। ये सब अपवाद भी अहिंसा महाव्रत के है। जीवन, आखिर जीवन है, वह संयम की साधना में एक प्रमुख भाग रखता है। और, जीवन सचमुच वही है, जो शान्त हो, समाधिमय हो, निराकुल हो। अस्तु, उत्सर्ग में रहते यदि जीवन में समाधिभाव रहता हो, तो वह ठीक है। यदि किसी विशेष कारणवशात उत्सर्ग में समाधिभाव न रहता हो, अपवाद में ही रहता हो, तो अमुक सीमा तक वह भी ठीक है। अपने आप में उत्सर्ग और अपवाद मुख्य नहीं, समाधि मुख्य है। मार्ग कोई भी हो, अन्ततः समाधिरूप लक्ष्य की पूर्ति होनी चाहिए। सत्य का उत्सर्ग और अपवाद : ___ सत्य भाषण, यह भिक्षु का उत्सर्ग-मार्ग है । दशवकालिक सूत्र में कहा है---"मषावाद-- असत्य भाषण लोक में सर्वत्र समस्त महापुरुषों द्वारा निन्दित है। असत्य भाषण अविश्वास की भूमि है। इसलिए निर्ग्रन्थ मृषावाद का सर्वथा त्याग करते हैं। परन्तु, साथ में इसका अपवाद भी है। आचारांग सूत्र में वर्णन आता है, कि एक भिक्षु मार्ग में जा रहा है। सामने से व्याध आदि कोई व्यक्ति आए और पूछे कि-"आयुमन् श्रमण ! क्या तुमने किसी मनुष्य अथवा पशु आदि को इधर से आते-जाते देखा है ?" प्रकार के प्रसंग पर प्रथम तो भिक्ष उसके वचनों की उपेक्षा करके मौन रहे। यदि मौन न रहने-जैसी स्थिति हो, या मौन रहने का फलितार्थ स्वीकृति-सूचक जैसा हो, तो “जानता हुअा भी यह कह दे, कि मैं नहीं जानता।"४१ । यहाँ पर असत्य बोलने का स्पष्ट उल्लेख है। यह भिक्षु का अपवाद मार्ग है। इस प्रकार के प्रसंग पर असत्य भाषण भी पापरूप नहीं है। निशीथचणि में भी प्राचारांग सूत्र का उपर्युक्त कथन समुद्धृत है। ३६. इतरस्तु सति कारणे यदि गच्छेत् । --प्राचारांग वृत्ति २, १, १, ३, २० बच्चा-मुत्तं न धारए। दशवकालिक अ० ५, गा० १६ उच्चार-प्रश्रवणादिपीडितानां कम्बलावृतदेहानां गच्छतामपि न तथाविधा विराधना। -योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति, ३ प्रकाश, ८७ श्लोक ३७. बाल-वृद्ध-ग्लाननिमित्तं वर्षस्यपि जलधरे भिक्षाय निःसरतां कम्बलावृतदेहानां न तथाविधाप्काय विराधना। -योगशास्त्र, स्वोपज्ञ वृत्ति ३, ८७ ३८. तओ संजयामेव उदगंसि पविज्जा।। ---प्राचारांग २, १, ३, २, १२२ ३६. एवं अद्धाणादिसू, पलंबगहणं कया वि होज्जाहि।—निशीथ भाष्य, गा० ४८७६ ४०. मसावाओ य लोगम्मि, सव्व साहहि गरिहिओ। - अविस्सासो य भूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए ।।-दशवकालिक, ६ गा० १३ ४१. "तुसिणीए उवेहेज्जा, जाणं वा नो जाणंति वएज्जा।"-प्राचारांग २, १, ३, ३, १२६ भिक्षोर्गच्छतः कश्चित् संमुखीन एतद् यात्-प्रायष्मन् श्रमण ! भवता पथ्यागच्छता कश्चिद् मनुष्यादिरुपलब्धः? तं चैवं पृच्छन्तं तुष्णीभावेनोपेक्षेत, यदि वा जाननपि नाहं जानामि, इत्येदं वदेत् । -प्राचार्य शीलांक की टीका ४२. "संजमहेर ति" जइ केइ लुद्धगादी पुच्छंति--'कतो एत्थ भगवं दिवा मिगादी?'......ताहे दिटठेस वि वत्तव्वं--ण वि "पासे" ति दिद्र त्ति वत्तं भवति । --निशीथ चूर्णि, भाष्यगाथा ३२२ २४२ Jain Education International पन्ना समिक्खए धम्म www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.212374
Book TitleUtsarg Aur Apwad Dono Hi Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size1 MB
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