________________
दुहराई गई धारणा एवं रूढ़िगत मान्यता के साथ बँध गया है, प्रतिबद्ध हो गया है। बस, यह प्रतिबद्धता--आग्रह ही उसके मन की विचिकित्सा का कारण है।
शास्त्र की चर्चा करने से पहले एक बात हमें समझ लेनी है कि अध्यात्म और विज्ञान राम-रावण जैसे कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है, दोनों ही विज्ञान है, एक आत्मा का विज्ञान है, तो दूसरा प्रकृति का विज्ञान है। अध्यात्म-विज्ञान के अन्तर्गत आत्मा के शुद्धाशुद्ध स्वरूप, बन्धमोक्ष, शुभाशुभ परिणतियों का ह्रास-विकास आदि का विश्लेषण प्राता है। और विज्ञान, जिसे में प्रकृति का विज्ञान कहना ठीक समझता हूँ, इसमें हमारे शरीर, इन्द्रिय, मन, इनका संरक्षणपोषण एवं चिकित्सा आदि, तथा प्रकृति का अन्य मार्मिक विश्लेषण समाहित होता है। दोनों का ही जीवन की अखण्ड सत्ता के साथ सम्बन्ध है। एक जीवन की अन्तरंग धारा का प्रतिनिधि है, तो एक बहिरंग धारा का। अध्यात्म का क्षेत्र मानव का अन्तःकरण, अन्तश्चैतन्य एवं प्रात्मतत्त्व रहा है, जबकि आज के विज्ञान का क्षेत्र प्रकृति के अणु से लेकर विराट खगोल-भगोल आदि का प्रयोगात्मक अनसन्धान करना है, इसलिए वह हमारी भाषा में बहिरंग ज्ञान है, जबकि अन्तरंग चेतना का विवेचन, विशोधन एवं ऊर्वीकरण करना अध्यात्म का विषय है, वह अन्तरंग ज्ञान है।
. इस दृष्टि से विज्ञान व अध्यात्म में प्रतिद्वन्द्विता नहीं, अपितु पूरकता पाती है। विज्ञान प्रयोग है, अध्यात्म योग है। विज्ञान सृष्टि की, परमाणु आदि की चमत्कारी शक्तियों का रहस्य उद्घाटित करता है, प्रयोग द्वारा उन्हें हस्तगत करता है, और अध्यात्म उन शक्तियों का कल्याणकारी उपयोग करने की दृष्टि देता है। मानव-चेतना को विकसित, निर्भय एवं निर्द्वन्द्व बनाने की दृष्टि अध्यात्म के पास है। भौतिक विज्ञान की उपलब्धियों का कब, कैसे, कितना और किसलिए उपयोग करना चाहिए, इसका निर्णय अध्यात्म देता है, वह भौतिक प्रगति को विवेक की आँख देता है-फिर कैसे कोई विज्ञान और अध्यात्म को विरोधी मान
सकता है ?
. हमारा प्रस्तुत जीवन केवल प्रात्ममुखी होकर नहीं टिक सकता है और न केवल बहिर्मुखी ही रह सकता है। जीवन की दो धाराएँ हैं--एक बहिरंग, दूसरी अंतरंग । दोनों धाराओं को साथ लेकर चलना, यहीं तो जीवन की अखण्डता है। बहिरंग जीवन में विशृंखलता नहीं पाए, द्वन्द्व नहीं पाए, इसके लिए अंतरंग जीवन की दृष्टि अपेक्षित है। अन्तरंग जीवन आहार-विहार आदि के रूप में बहिरंग से, शरीर आदि से, सर्वथा निरपेक्ष रहकर चल नहीं सकता, इसलिए बहिरंग का सहयोग भी अपेक्षित है। भौतिक और आध्यात्मिक, सर्वथा निरपेक्ष दो अलग-अलग खण्ड नहीं हो सकते, बल्कि दोनों को अमुक स्थिति एवं मात्रा में साथ लेकर ही चला जा सकता है, तभी जीवन सुन्दर, उपयोगी एवं सुखी रह सकता है । इस दुष्टि से मैं सोचता हूँ तो लगता है-अध्यात्म-विज्ञान और भौतिक-विज्ञान दोनों ही जीवन के अंग हैं, फिर इनमें विरोध और द्वन्द्व की बात क्या रह जाती है? यही प्राज का मुख्य प्रश्न है !
शास्त्र बनाम ग्रन्थः
भौतिक विज्ञान के कुछ भूगोल-खगोल सम्बन्धी अनुसन्धानों के कारण धर्मग्रन्थों की कुछ मान्यताएँ आज गड़बड़ा रही हैं, वे असत्य सिद्ध हो रही है और उन ग्रन्थों पर विश्वास करने वाला वर्ग लड़खड़ा रहा है, अनास्था से दिग्-भ्रान्त हो रहा है । सैकड़ों वर्षों से चले आए ग्रन्थों और उनके प्रमाणों को एक क्षण में कैसे अस्वीकार कर लें और कैसे विज्ञान के प्रत्यक्षसिद्ध तथ्यों को झुठलाने का दुस्साहस कर लें। बस, यह वैचारिक प्रतिद्वन्द्विता का संघर्ष ही आज धार्मिक मानस में उथल-पुथल मचाए जा रहा है। जहाँ-जहाँ पर परम्परागत वैचारिक प्रतिबद्धता, तर्कहीन विश्वासों की जड़ता विजयी हो रही है, वहाँ-वहाँ विज्ञान को असत्य, भ्रामक और सर्वनाशी कहने के सिवा, और कोई चारा भी नहीं है। मैं समझता हूँ, इसी भ्रान्ति के कारण विज्ञान को धर्म का विरोधी एवं प्रतिद्वन्द्वी मान लिया गया है, और धार्मिकों की इसी
२१२ Jain Education Intemational
पन्ना समिक्खए धम्म
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only