________________ क्रोध की झलक नहीं, घृणा नहीं, द्वेष नहीं। साधु बनना चाहते हो, तो ऐसे बनो कि तुममें इतनी सहिष्णुता रहे, इतनी क्षमा रहे / जीवन में प्रसन्नता के साथ कष्टों का सामना करने की क्षमता हो, तो साधु की ऊँची भूमिका पर जा सकते हो।" इसी घटना के प्रकाश में हम भगवान् महावीर की वाणी का रहस्य समझ सकते हैं कि साधु जीवन हो या गहस्थ जीवन, जब तक जीवन में आन्तरिक तेज नहीं जग पाए, प्रामाणिकता और सच्ची निष्ठा का भाव न हो, तो दोनों ही जीवन बदतर है। और, यदि इन सद्गुणों का समावेश जीवन में हो गया है, तो दोनों ही जीवन अच्छे हैं, श्रेष्ठ है, और उनसे आत्म-कल्याण का मार्ग सुगमता से प्रशस्त हो सकता है। Jain Education Intemational www.jainelibrary.org