SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ " सेयंबरो य श्रासंबरी थ, समभावभावियप्पा, बुद्धो व अहव प्रनो वा । लहई मोक्खं न संदेहो ॥" कोई श्वेताम्बर हो, या दिगम्बर हो, जैन हो, या बौद्ध अथवा वैष्णव हो । ये कोई धर्म नहीं हैं, मुक्ति के मार्ग नहीं हैं। धर्म कोई दस हजार, या दो हजार वर्ष के परम्परागत प्रचार का परिणाम नहीं है, वह तो एक अखंड, शाश्वत और परिष्कृत विचार है और हमारी विशुद्ध आन्तरिक चेतना है । मुक्ति उसे ही मिल सकती हैं, जिसकी साधना समभाव से परिपूर्ण है, दुःख में भी और सुख में भी सम है, निर्द्वन्द्व है, वीतराग है । श्राप लोग वर्षा के समय बरसाती ओढ़कर निकलते हैं, कितना ही पानी बरसे, वह भीगती नहीं, गोली नहीं होती, पानी बह गया और बरसाती सूखी की सूखी । साधक का मन भी बरसाती के समान हो जाना चाहिए । सुख का पानी गिरे या दुःख का, मन को भींगना नहीं चाहिए । यही द्वन्द्वों से अलिप्त रहने की प्रक्रिया, वीतरागता की साधना है । और, यही वीतरागता, हमारी शुद्ध अन्तश्चेतना धर्म है । धर्म के रूप : जैनाचार्यों ने धर्म के सम्बन्ध में बहुत ही गहरा चिंतन किया है। वे मनन-चिन्तन बयाँ लगाते रहे और साधना के बहुमूल्य चमकते मोती निकालते रहे । उन्होंने धर्म के दो रूप बताए हैं-- एक निश्चय धर्म और दूसरा व्यवहार धर्म । किन्तु वस्तुतः धर्म दो नहीं होते, एक ही होता है । किन्तु, धर्म का वातावरण तैयार करनेवाली तथाप्रकार की साधन-सामग्रियों को भी धर्म की परिधि में लेकर, उसके दो रूप बना दिए हैं। व्यवहार-धर्म का अर्थ है, निश्चय-धर्म तक पहुँचने के लिए पृष्ठभूमि तैयार करने वाला उप-धर्म | साधना की उत्तरोत्तर प्रेरणा जगाने के लिए और उसका अधिकाधिक प्रशिक्षण ( ट्रेनिंग ) लेने के लिए व्यवहार धर्म की आवश्यकता है। यह एक प्रकार का स्कूल है । स्कूल ज्ञान का दावेदार नहीं होता, किन्तु ज्ञान का वातावरण जरूर निर्माण करता है। स्कूल में आने वाले के भीतर प्रतिभा है, तो वह विद्वान् बन सकता है, ज्ञान की ज्योति प्राप्त कर सकता है । और, यदि निरा बुद्धराज है, तो वर्षों तक स्कूल की बैंचें तोड़ने के बाद भी वैसा का वैसा ही रहेगा। स्कूल में यह शक्ति नहीं कि किसी को विद्वान् बना ही दे । यही बात व्यवहार-धर्म की है । बाह्य क्रियाकांड किसी का कल्याण करने की गारण्टी नहीं दे सकता । जिस साधक के अन्तर् में, अंशतः ही सही, निश्चय धर्म की जागृति हुई है, उसी का कल्याण हो सकता है, अन्यथा नहीं। हाँ, परिस्थितियों के निर्माण में व्यवहार धर्म का सहयोग अवश्य रहता है । वर्तमान परिस्थितियों में हमारे जीवन में निश्चय-धर्म की साधना जगनी चाहिए। बहार धर्म के कारण जो विकट विवाद, समस्याएँ और अनेक सरदर्द पैदा करने वाले प्रश्न कौंध रहे हैं, उनका समाधान सिर्फ निश्चय-धर्म की ओर उन्मुख होने से ही हो सकता है । आज का धार्मिक जीवन उलझा हुआ है, सामाजिक जीवन समस्याओं से घिरा है, राजनीतिक जीवन तनाव और संघर्ष से अशान्त है । इन सबका समाधान एक ही हो सकता है वह है निश्चय-धर्म की साधना अर्थात् जीवन में वीतरागता, अनासक्ति ! वीतरागता का दृष्टिकोण व्यापक है । हम अपनी वैयक्तिक, सामाजिक एवं साम्प्रदायिक मान्यताओं के प्रति भी आसक्ति न रखें, आग्रह न करें, यह एक स्पष्ट दृष्टिकोण है । सत्य के लिए श्राग्रही होना एक चीज है और मत के लिए आग्रही होता दूसरी चीज । सत्य का आग्रह दूसरे के सत्य को ठुकराता नहीं, अपितु सम्मान करता है। जबकि मत का • ग्राग्रह दूसरे के अभिमत सत्य को सत्य होते हुए भी ठुकराता है, उसे लांछित करता है । ११० Jain Education International For Private & Personal Use Only पना समिक्ख धम्मं www.jainelibrary.org.
SR No.212359
Book TitleJivan Paribodh Ka Marg Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size631 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy