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________________ लज्जा की बात थी कि अनेकान्त के माननेवाले परस्पर में ही लड़ पड़े और अपना मण्डन तथा दूसरों का खण्डन करने लगे। याद रखिए, यदि आप दूसरे के घर में आग लगाते हैं, तो वह आग फैलकर आपके घर में भी आ सकती है। यह कभी मत समझिए कि हम दूसरों का खण्डन कर के अपना मण्डन कर सकेंगे। प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक पंथ काँच के महल में बैठा हुआ है, इसलिए उसे दूसरे को पत्थर मारकर अपने को सुरक्षित समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। खेद है, भारत का अध्यात्मवादी-दर्शन अपने अध्यात्मवाद को भूलकर पंथवादी बनकर लड़ने को तैयार हो गया। भारतीय-दर्शन का उज्ज्वल रूप खण्डन एवं मण्डन में नहीं है, वह है उसके समन्वय में और है उसके अनेकान्तवादी दृष्टिकोण में। समन्वय ही भारतीय-दर्शन का वास्तविक स्वरूप है और यही उसका मूल आधार है। जैन-धर्म की अनेकान्त-दृष्टि इसी समन्वय-परम्परा को पुष्ट करती है। एक तरह से जैन-दर्शन का मूल, यह समन्वय-परम्परा ही है / जैन-दर्शन की समन्वय-पराम्परा 65. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212357
Book TitleJain Darshan Ki Samanvay Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size706 KB
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