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________________ दो ही क्यों ? अग्नी की ज्वाला जलते ही ऊपर को क्यों जाती है, वह नीचे को क्यों नहीं जाती? इन सब प्रश्नों का उत्तर केवल यही है कि प्रकृति का जो नियम है, वह अन्यथा नहीं हो सकता। यदि वह अन्यथा होने लगे, तो फिर संसार में प्रलय ही हो जाए। सूर्य पश्चिम में उगने लगे, अग्नि शीतल हो जाए, गधे-घोडे आकाश में उडने लगे तो फिर संसार में कोई व्यवस्था ही न रहे। नियति के अटल सिद्धान्त के समक्ष अन्य सब सिद्धान्त तुच्छ / हैं। कोई भी व्यक्ति प्रकृति के अटल नियमों के प्रतिकूल नहीं जा सकता। अतः नियति ही सब से महान् है। कुछ प्राचार्य नियति का अर्थ होनहार भी कहते हैं। जो होनहार है, वह होकर रहता है, उसे कोई टाल नहीं सकता। इस प्रकार उपर्युक्त पाँचों वाद अपने-अपने विचारों की खींचातान करते हुए, दूसरे विचारों का खण्डन करते हैं। इस खण्डन-मण्डन के कारण साधारण जनता में भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो गई है। वह सत्य के मूल मर्म को समझने में असमर्थ है। भगवान् महावीर ने विचारों के इस संघर्ष का बड़ी अच्छी तरह समाधान किया है। संसार के सामने उन्होंने वह सत्य प्रकट किया, जो किसी का खण्डन नहीं करता, अपितु सबका समन्वय करके जीवननिर्माण के लिए उपयोगी प्रादर्श प्रस्तुत करता है। समन्यवाद: भगवान् महावीर का उपदेश है कि पांचों ही वाद अपने-अपने स्थान पर ठीक है, संसार में जो भी कार्य होता है, वह इन पाँचों के समन्वय से अर्थात् मेल से होता है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि एक ही शक्ति अपने बल पर कार्य सिद्ध कर दे। बुद्धिमान मनुष्य को आग्रह छोड़कर सबका समन्वय करना चाहिए। बिना समन्वय किए, कार्य में सफलता 'प्राशा रखना दराशामात्र है। एकान्त रूप से किसी एक ही पक्ष का अाग्रह रखना उचित नहीं है। आग्रह से कदाग्रह और कदाग्रह से विग्रह अन्ततोगत्वा पैदा ही होता है। यह हो सकता है कि किसी कार्य में कोई एक प्रधान हो और दूसरे सब गौण हों, परन्तु यह नहीं हो सकता कि कोई अकेला ही स्वतन्त्र रूप से कार्य सिद्ध कर दे। भगवान् महावीर का उपदेश पूर्णतया सत्य है। हम इसे समझने के लिए ग्राम बोनेवाले माली का उदाहरण ले सकते हैं। माली बाग में ग्राम की गुठली बोता है, यहाँ पाँचों कारणों के समन्वय से ही वृक्ष होगा। आम की गुठली में आम पैदा होने का स्वभाव है परन्तू बोने का और बोकर रक्षा करने का पुरुषार्थ न हो तो क्या होगा? बोने का पुरुषार्थ भी कर लिया, परन्तु बिना निश्चित काल का परिपाक हुए, प्राम यों ही जल्दी थोड़े ही तैयार हो जाएँगे? काल की मर्यादा पूरी होने पर भी यदि शुभ कर्म अनुकूल नहीं है, तो फिर भी आम नहीं लगने का। कभी-कभी किनारे अाया हुआ जहाज भी डूब जाता है। अब रही नियति / वह सब कुछ है ही। आम से आम होना प्रकृति का नियम है, इससे कौन इन्कार कर सकता है ? और आम होना होता है, तो होता है, नहीं होना होता है, तो नहीं होता है। हाँ या ना, जो होना है, उसे कोई टाल नहीं सकता। पढ़ने वाले विद्यार्थी के लिए भी पाँचों आवश्यक हैं। पढ़ने के लिए चित्त की एकाग्रता रूप स्वभाव हो, समय का योग भी दिया जाए, पुरुषार्थ यानी प्रयत्न भी किया जाए, अशुभ कर्म का क्षय तथा शभ कर्म का उदय भी हो और प्रकृति के नियम नियति एवं भवितव्यता का भी ध्यान रखा जाए; तभी वह पढ़-लिख कर विद्वान् हो सकता है। अनेकान्तवाद के द्वारा किया जानेवाला यह समन्वय ही वस्तुतः जनता को सत्य का प्रकाश दिखला सकता है। विचारों के भँवर-जाल में आज मनुष्य की बुद्धि फंस रही है। एकान्तवाद का आग्रह रखने के कारण, वह किसी भी समस्या का उचित समाधान नहीं पा रहा है। समस्या का समाधान पाने के लिए उसे जैन-दर्शन के इस अनेकान्तवाद अर्थात् समन्वयवाद को समझना अत्यन्त आवश्यक है। अनेकता में एकता 87 www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.212356
Book TitleAnekta Me Ekta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size565 KB
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