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________________ भारतीय साहित्य में बड़ा मंगलकारी माना गया है। यह जहाँ रहता है, उस प्रदेश में अतिवृष्टि और अनावृष्टि आदि के उपद्रव नहीं होते । सदा सुभिक्ष रहता है, कभी भी दुर्भिक्ष नहीं पड़ता । तीर्थंकर भगवान् भी मानव-जाति में गन्ध हस्ती के समान हैं । भगवान् का प्रताप और तेज इतना महान् है कि उनके समक्ष अत्याचार, वैर-विरोध, अज्ञान और पाखण्ड आदि कितने ही भयंकर क्यों न हों, ठहर ही नहीं सकते । चिरकाल से फैले हुए मिथ्या विश्वास, भगवान् की वाणी के समक्ष सहसा छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, सब ओर सत्य का प्रखण्ड साम्राज्य स्थापित हो जाता है । भगवान् गन्ध-हस्ती के समान विश्व के लिए मंगलकारी हैं। जिस देश में भगवान् का पदार्पण होता है, उस देश में अतिवृष्टि, अनावृष्टि, महामारी आदि किसी भी प्रकार के उपद्रव नहीं होते । यदि पहले से उपद्रव हो भी रहे हों, तो भगवान् के पधारते ही सबके-सब पूर्णता शान्त हो जाते हैं । समवायांग -सूत्र में तीर्थङ्कर देव के चौतीस प्रतिशयों का वर्णन है । वहाँ लिखा है कि "जहाँ तीर्थंकर भगवान् विराजमान होते हैं, वहाँ आसपास सौ-सौ कोस तक महामारी आदि के उपद्रव नहीं होते । यदि पहले से हों भी, तो शीघ्र ही शान्त हो जाते हैं ।" यह भगवान् का कितना महान् विश्व-हितंकर रूप है ! भगवान् की महिमा के अन्तरंग के काम, क्रोध आदि उपद्रवों को शान्त करने में ही नहीं है, अपितु बाह्य उपद्रवों की शान्ति में भी है । प्रश्न किया जा सकता है कि एक सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार तो जीवों की रक्षा करना, उन्हें दुःख से बचाना पाप है । दुःखों को भोगना, अपने पाप कर्मों का ऋण चुकाना है । अतः भगवान् का यह जीवों को दुःखों से बचाने का अतिशय क्यों ? उत्तर में निवेदन है कि भगवान् का जीवन मंगलमय है। वे क्या आध्यात्मिक और क्या भौतिक, सभी प्रकार से जनता के दुःखों को दूर कर शान्ति का साम्राज्य स्थापित करते हैं । यदि दूसरों को अपने निमित्त से सुख पहुँचाना पाप होता, तो भगवान् को यह पाप-वर्द्धक अतिशय मिलता ही क्यों ? यह अतिशय तो पुण्यानुबन्धी पुण्य के द्वारा प्राप्त होता है, फलतः जगत् का कल्याण करता है। इसमें पाप की कल्पना करना अज्ञानता है। कौन कहता है कि जीवों की रक्षा करना पाप है ? यदि पाप है, तो भगवान् को यह पाप जनक अतिशय कैसे मिला ? यदि किसी को सुख पहुँचाना वस्तुतः पाप ही होता, तो भगवान् क्यों नहीं किसी पर्वत की गुहा में बैठे रहे ? क्यों दूर - सुदूर देशों में भ्रमण कर जगत् का कल्याण करते रहे ? अतएव यह भ्रान्त कल्पना है कि किसी को सुख-शान्ति देने से पाप होता है । भगवान् का यह मंगलमय अतिशय ही इसके विरोध में सबसे बड़ा और प्रबल प्रमाण है । लोक-प्रदीप : तीर्थंकर भगवान् लोक में प्रकाश करने वाले अनुपम दीपक हैं । जब संसार में अज्ञान अन्धकार घनीभूत हो जाता है, जनता को अपने हित-अहित का कुछ भी भान नहीं रहता है, सत्य धर्म का मार्ग एक प्रकार से विलुप्त-सा हो जाता है, तब तीर्थंकर भगवान् अपने केवलज्ञान का प्रकाश विश्व में फैलाते हैं और जनता के मिथ्यात्व अन्धकार को नष्ट कर सन्मार्ग का पथ आलोकित करते हैं । घर का दीपक घर के कोने में प्रकाश करता है, उसका प्रकाश सीमित और धुंधला होता है । परन्तु भगवान् तो तीन लोक के दीपक हैं, तीन लोक में प्रकाश करने का महान् afa पने पर रखते हैं। घर का दीपक प्रकाश करने के लिए तेल और बत्ती की अपेक्षा रखता है, अपने-आप प्रकाश नहीं करता, जलाने पर प्रकाश करता है, वह भी सीमित प्रदेश में और सीमित काल तक ! परन्तु तीर्थंकर भगवान् तो विना किसी अपेक्षा के अपनेआप तीन लोक और तीन काल को प्रकाशित करने वाले हैं । भगवान् कितने अनोखे दीपक हैं ! ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only पना समिक्ar धम्मं www.jainelibrary.org
SR No.212349
Book TitleTirthankar Mukti Path Ka Prastota
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages16
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size1 MB
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