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________________ है, परन्तु वह जीवन का सिद्धान्त एवं आदर्श कभी नहीं बन सकती। श्रद्धा के विना अहिंसा और सत्य आदि की साधना कदापि नहीं हो सकती। गांधीजी कष्ट एवं संकट के झंझावातों में, जेल के सी कचों में भी प्रानन्द अनुभव करते थे, मुस्कराते रहते थे। वह प्रानन्द उन्हें कहाँ से प्राप्त होता था ? बाहर से या भीतर से ? भीतर में जो आनन्द का अमृत सरोवर था, वह श्रद्धा ही थी। अहिंसा-सत्य की श्रद्धा थी, इसलिए वे संकट के क्षणों में भी अपनी साधना से आनन्द की अनुभति करते थे। इसलिए मैंने आपसे कहा-“श्रद्धा हमारे जीवन में रस का स्रोत है, आनन्द का उत्स है।" मित्र और भगवान है, श्रद्धा : .. आप जीवन में किसी को मित्र बनाते हैं और फिर उस मंत्री का आनन्द प्राप्त करते हैं। मित्र बनाने का अर्थ क्या है ? आप मिन कहे जानेवाले व्यक्ति में अपना विश्वास स्थिर करते हैं, उस मैत्री भाव के भीतर श्रद्धा का रस संचार करते हैं और फिर उस विश्वास-श्रद्धा का आनन्द लेते हैं, प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। पति-पत्नी क्या हैं ? केवल दैहिक सम्बन्ध ही पति-पत्नी नहीं है। पति-पत्नी (दाम्पत्य जीवन) एक भाव है, एक विश्वास है, एक श्रद्धा है। पहले एक-दूसरे में विश्वास स्थापित किया जाता है, श्रद्धा का रस एक-दूसरे के हृदय में डाला जाता है, और फिर उससे आनन्द-उल्लास प्राप्त किया जाता है। गुरु और शिष्य, भक्त और भगवान् के सम्बन्ध में भी और कुछ नहीं, केवल एक भाव है। श्रद्धा है, तो गुरु है। भाव है, तो भगवान् है। 'भावे हि विद्यते देवः' भाव में ही भगवान है। यदि भाव नहीं है, तो भगवान् कहीं नहीं है। ईश्वर के लिए, ब्रह्म के लिए जब जिज्ञासा उठी-वह क्या है ? तो उत्तर मिला"रसो वै सः, रसं होवायं लब्ध्वाऽनन्दी भवति" - वह ईश्वर रसरूप है। तभी तो मनुष्य जहाँ कहीं रस पाता है, तो उसमें निमग्न हो जाता है, आनन्द-स्वरूप हो जाता है। मन को रस दीजिए : मेरा अभिप्राय यह है कि कर्म में पहले रस जागृत होना चाहिए। सत्कर्म में जब रस जगता है, तो आनन्द की उपलब्धि होती है और तब भगवज्योति के दर्शन होने लगते हैं। फिर प्रत्येक सत्कर्म, भक्ति एवं उपासना का रूप ले लेता है, प्रानन्द का स्रोत बन जाता है, जिससे निरन्तर हमारा मन अक्षय आनन्द प्राप्त करता रहता है। मन को बिना रस दिए यदि कोई चाहे कि उसे किसी कार्य में लगा दें, तो यह संभव नहीं है। मधु-मक्षिका को जब रस मिलेगा, तो वह फूलों पर आएगी, मंडराएगी। यदि रस नहीं मिलेगा, तो आप कितना ही निमन्त्रण दीजिए, वह नहीं पाएगी। .. मधु-मक्षिका की बात हम पहले से कहते पाए हैं। पर, राजगृह के चातुर्मास (सन् १९६२) में मैंने इसे बहुत निकट से और बारीकी से देखा। हम प्रायः वैभारगिरि पर्वत पर ध्यान-साधना हेतु वेणु-वन में से हो कर जाते थे। वेणु-वन भगवान् महावीर एवं बुद्ध के युग में बांसों का एक विशाल जंगल था और अब उसे फूलों का बगीचा बना दिया गया है। हाँ, प्राचीन इतिहास की कड़ी को जोड़े रखने के लिए, अब भी उसे वेणु-वन ही कहते हैं, और नाम की सार्थकता के लिए सौ-दो सौ बाँस भी लगा रखे हैं। मैंने वहाँ देखा, मधु-मक्खियाँ पहले फूलों पर ऊपर-ऊपर उड़ती हैं, गुनगुनाती हैं, रस खोजती हैं, फिर किसी फूल पर जाकर बैठती हैं। और, जब रस मिलने लगता है, तो बिल्कुल मौन, शान्त ! ऐसा लगता है कि मधुमक्खी फूल के भीतर लीन-विलीन होती जा रही है, बिल्कुल निष्पन्द, निश्चेष्ट । हमारा मन भी एक तरह से मधु-मक्षिका ही है। इसे सत्कर्म के फूलों में जब तक रस नहीं मिलेगा, तब तक वह उनके ऊपर-ही-ऊपर मंडराता रहेगा, गुनगुनाता रहेगा। किन्तु, .. १. तत्तिरीय उपनिषद, २,७.. १४ पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212347
Book TitleSadhna Ka Kendrabindu Antarman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size701 KB
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