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जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन होगी। वैदिक भाषा दुरूह थी, इसी दुरूहता के कारण प्राचीन आर्य भाषा में अनेक परिवर्तन हुए और इसी परिवर्तन के कारण मध्य भारतीय आर्य भाषा का उदय हुआ जिससे पालि-प्राकृत आदि भाषाएँ निकलीं। यहाँ पालि एवं प्राकृत के स्वरूप को समझाने के लिए उन परिवर्तनों पर विचार करना समीचीन होगा।
प्राचीन भारतीय आर्यभाषा की ऋ, ल ध्वनियाँ समाप्त हो गई। ऐ और औ के स्थान पर ए एवं ओ का प्रयोग होने लगा। अव, अय ध्वनि-समूहों का स्थान ए, ओ ध्वनियों ने ले लिया । म् व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग होने लगा। शु, ष के स्थान पर केवल स का व्यवहार होने लगा। शब्द एवं धातु रूपों में भी परिवर्तन हुए। अनेक अजन्त एवं हलन्त प्रातिपदिकों के रूप अकारान्त प्रातिपदिकों के समान बनने लगे । सम्बन्धकारक के एक वचन में जो रूप अश्वस्य, मुनेः, साधोः तथा पितुः आदि थे वे अब असस्म, मुनिस्स, साधुस्स तथा पितुस्स आदि होने लगे। संज्ञा में भी सर्वनाम के रूपों का विधान होने लगा। धातुओं के रूपों में मो ह्रास हुआ । सनान्त तथा यङ्गन्त के प्रयोगों में कमी आई। इन्हीं सब परिवर्तनों के कारण प्राचीन भारतीय आर्यभाषा को एक नवीन रूप प्राप्त हुआ जिसे मध्य भारतीय भाषा के रूप में ग्रहण किया गया, और इसी मध्य भारतीय आयभाषा को पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, आदि कहा गया है।
प्राकृत का जो प्राचीन रूप प्राप्त होता है वह अशोक के शिलालेखों का है। ऐसा जान पड़ता है कि पालि या तत्कालीन लोकभाषा के तीन स्वरूप प्रचलित थे। पूर्वी, पश्चिमी और पश्चिमोत्तरी । इन्हीं बोलियों का विकास बाद में प्राकृतों के रूप में हुआ। मागधी एवं अर्द्धमागधी अशोककालीन पूर्वी बोली के, शौरसेनी पश्चिमी बोली के और पैशाची पश्चिमोत्तरी बोली के विकसित रूप हैं, ऐसा कहा जा सकता है । भरत मुनि के अनुसार सात प्रकार की प्राकृतें हैं जिन्हें, मागधी, अवन्ती, प्राच्या, शौरसेनी, अर्द्धमागधी, बालीका और दाक्षिणात्या कहा जाता है। बाद में वैय्याकरण हेमचन्द्र ने पैशाची एवं लाटी को भी इसमें जोड़ दिया है। पर साहित्य की दृष्टि से चार प्रकार को प्राकृतें ही मुख्य हैं । वे हैं-मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्रो । इनके साथ पालि का क्या सम्बन्ध रहा है यह विचारणीय है ।
१. मागध्यवन्तिजा प्राच्या शूरसेन्यर्द्धमागधी ।
बह्लीकदक्षिणात्याश्च सत भाषाः प्रकीर्तिताः ।। -ना० शा० ११४८
परिसंवाद-४
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