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________________ जैन आगमों में सूक्ष्म शरीर की अवधारणा और आधुनिक विज्ञान १८७ (५) कार्मण शरीर-जीवों की सत् असत् क्रिया के प्रतिफल बनने वाला कार्मण शरीर है। इन पाँच शरीर वर्गणाओं में सबसे अधिक स्थूल वर्गणाएँ औदारिक शरीर की हैं और उत्तरोत्तर शरीर की सूक्ष्मतर हैं। पहिले तीन शरीरों की अपेक्षा पिछले दो शरीर, सूक्ष्म कहलाते हैं। ये सभी संसारी जीवों के हर अवस्था में होते हैं । जीव के इन दो शरीरों के अलावा औदारिक अथवा वैक्रियक शरीर होता है। आहारक शरीर सम्पन्न मुनि अपने संदेह की निवृत्ति के लिए एक पुतले का निर्माण कर सर्वज्ञ के पास भजते हैं। वह उनके पास जाकर उनसे संदेह की निवृत्ति कर पुनः मुनि के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। यह शरीर योगी मुनियों के ही सम्भव है। यह शीघ्र गति से गमन करता है। यह इन्द्रिय-गम्य भी नहीं होता। फिर भी यह शरीर तैजस और कार्मण शरीर की अपेक्षा स्थूल होता है, क्योंकि यह आठ स्पर्श वाले पुद्गलों से निर्मित होता है । पं० सुखलाल जी संघवी ने तत्त्वार्थसूत्र की विवेचना में स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर का अभिप्राय यह कहा है कि स्थूल की रचना परिमाण में शिथिल होती है और सूक्ष्म की सघन । स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म में अनन्त स्कन्धों की सघनता होती है । यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि सूक्ष्म शरीर, संहति रहित पुद्गलों से बने हैं, अतः वे कम आकाश प्रदेश में ही अनन्त स्कन्धों के सहित समा जाते हैंयही सूक्ष्मता है। सूक्ष्म शरीर के अस्तित्व को स्वीकार करने में जैनों का स्पष्ट रूप से यह प्रयोजन रहा होगा कि वे कुछ महत्वपूर्ण सिद्धान्तों को सुदृढ़ आधार दे सकें। जैसे (१) इस सृष्टि का कर्ता एवं नियन्ता ईश्वर नहीं है। (२) पुनर्जन्म, कार्मण शरीर की भौतिक एवं रासायनिक प्रक्रिया है । (३) सूक्ष्म पुद्गल का गमन आकाश में अप्रतिघात होता हुआ तीव्रगति से लोकान्त तक हो सकता है। (१) जैन दर्शन ईश्वर को इस लोक का कत्ती व नियन्ता स्वीकार नहीं करता। जैन चिन्तकों ने सूक्ष्म विश्व का गहरा अध्ययन कर इस तथ्य को महत्त्वपूर्ण माना कि सूक्ष्म जीव व पुद्गल के स्तर पर होने वाली घटनाएँ, परिवर्तन, गति आदि उनके गुण एवं पर्याय पर निर्भर करती हैं। यह जगत् स्वयं सिद्ध है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के दायरे में सभी द्रव्य अपने गुण तथा पर्याय को प्रकट करते रहते हैं। सूक्ष्म के स्तर पर होने वाली घटनाएँ, इन्द्रिय ग्राह्य न होने के कारण, ईश्वर को इसका परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212336
Book TitleJain Agamo Me Sukshm Sharir Ki Avdharna Aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Raj Gelada
PublisherZ_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf
Publication Year
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size560 KB
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