________________ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन स्पष्ट हो जाता है कि इसका मुख्य प्रयोजन वेद, ईश्वरकर्तृत्व और यज्ञीय हिंसा का विरोध करना पूर्व में कभी नहीं रहा है। इसके मूल साहित्य षट्खण्डागम, कषायप्राभृत, आ० कुन्दकुन्द द्वारा रचित साहित्य, मूलाचार, रत्नकरण्डश्रावकाचार, भगवती आराधना आदि पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है। इसलिए जो मनीषी इसे सुधारवादी धर्म कह कर इसे अर्वाचीन सिद्ध करना चाहते हैं, जान पड़ता है वस्तुतः उन्होंने स्वयं अपने धर्मग्रन्थों का ही ठीक तरह से अवलोकन किये विना अपना यह मत बनाया है। उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि जो वर्तमान में भारतीय संस्कृति का स्वरूप दृष्टिगोचर होता है उसे न केवल ब्राह्मण या वैदिक संस्कृति कहा जा सकता है, और न तो श्रमण संस्कृति कहना उपयुक्त होगा। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे स्वीकार कर लेने पर श्रमण संस्कृति से अनुप्राणित होकर भारतीय संस्कृति में जो निखार आया है, उसे आसानी से समझा जा सकता है / उपर्युक्त विवेचन से जिन तथ्यों पर विशेष प्रकाश पड़ता है, वे ये हैं 1. इसमें सदा से प्रत्येक द्रव्य का जो स्वरूप स्वीकार किया गया है उसके अनुसार जड़-चेतन प्रत्येक द्रव्य में अर्थक्रियाकारीपना सिद्ध होने से ही व्यतिरेकरूप में ही परकर्तृत्व का निषेध होता है / 2. व्यक्ति के जीवन में वीतरागता अजित करना मुख्य है। अहिंसा आदि उसके बाह्य साधन हैं। मात्र इसलिए जैन धर्म में अहिंसा आदि को मुख्यता दी गई है। यज्ञादिविहित हिंसा का निषेध करना इसका मुख्य प्रयोजन नहीं है। जीवन में अहिंसा के स्वीकार करने पर उसका निषेध स्वयं हो जाता है। __ ये कतिपय तथ्य हैं जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सुधारवाद की दृष्टि से जैन धर्म की संरचना नहीं हुई है। किन्तु भारतीय जन-जीवन पर जैन संस्कृति की अमिट छाप अवश्य है। यह माना जा सकता है। और यह स्वाभाविक भी है। जो पड़ोसी होते हैं उनमें आदान-प्रदान न हो यह नहीं हो सकता / श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान, सन्मति जैन निकेतन, नरिया वाराणसी, उत्तरप्रदेश / परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org