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यथास्थिति और दार्शनिक 27
कृष्ण को अन्याय के उन्मूलन के लिए गान्डीव उठा लेने का उपदेश न देना होता ।
वर्तमान स्थिति में इन्दिरा गांधी के गरीबी हटाओ नारों के बावजूद, देश की आजादी के ३० सालों के बाद जहां लाखों-करोड़ों को २ जून खाना नसीब न हो, देश के लाखों बच्चों IT भविष्य अन्धकारमय हो, जहां देश के नौ जवान, स्त्री-पुरुषों को अमीरों की गन्दगी के ढेरों से चुग चुग कर निर्वाह करना पड़ता हो "प्रजातन्त्र" को यदि अन्याय और अधर्म का ढांचा न कहा जाए तो वह और क्या है ?
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दिल्ली की सरकार -- पुलिस और फौजों की संगीनों के बूते पर खड़ी है और मन्त्रिगण राजनेता लाखों-करोड़ों के काले धन से खेल रहे हैं । जो कोई भूले से साहस करके व्यवस्था लाने की बात करता है— उसे 'नक्सलवादी' कह कर जेलों में ठूंस दिया जाता है या "मुठभेड़ों' में गोली से उड़ा दिया जाता है । राष्ट्रवाद व ठीक सुरक्षा के नाम पर सेना और गुरिल्लाविरोधी सैनिक दस्तों का बजट शिक्षा व लोक कल्याण पर किये जाने वाले खर्च से १,००० गुना किया जा चुका है । मुठीभर काले बाजारियों के सुख के लिए हमारे करों की करोड़ों की लागत से 'एयर कन्डीशन' ट्रेनें चलाई जा रही हैं जबकि स्कूलों की कच्ची दीवारे ढह रही अध्यापकों को तनख्वाहें नहीं मिल रहीं और अस्पतालों में दवाईयां और गोदामों में दाना नहीं " हैं । फिर भी इन्दिराजी का नारा है "जयहिन्द " । और काले झन्डों और अशान्ति को दबाने के लिए हमारे शासकों के पास है — बड़ी-बड़ी तोपें टैंक स्टेनगेन । इन्दिरा व वर्तमान अर्थशासक व्यवस्था अब लोकमत पर स्थित न होकर काले पैसे व संगीनों पर टिकी है । और यह संकेत (प्रमाण) है कि यथास्थिति व " प्रजातन्त्र" हमारे बहुमत व आम जनता के हित में नहीं है । और जितना ही कोई शासन संगीनों ओर नृशंसता का सहारा लेता है उतना ही क्रान्तिकारी शक्तियों द्वारा पतन के नजदीक होता है ।
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वर्तमान सरकार वैधानिक दृष्टि से अवैधानिक है और संविधान के नियमों के अनुसार वह “गैर सरकार” है । संविधान के आधार पर लोकसभा के चुनाव में केवल ३० हजार रुपये खर्चे का नियम है और राज्य विधान सभाओं के चुनाव में १० हजार । हम सब यह जानते हैं कि नेहरू वंश की प्रिय दर्शनी प्रधान मन्त्री इन्दिरा गांधी जब अपनी जनता से ऊंचे मंच पर बैठकर बात करती हैं तो सुनने वालों की तादात एक लाख से ५ लाख कूती जाती है । उनकी जन-सभाएं किस तरह आयोजित होती हैं, उनमें कितनी पुलिस और कितनी सरकारी एजेंसियां काम करती हैं उसके वर्णन में हम यहां नहीं जाना चाहते । किन्तु स्वर्गीय श्री नेहरू से लेकर इन्दिरा गांधी तक देश के सभी नेताओं ने अपने चुनावों पर ५० हजार से ५ लाख रुपये प्रति व्यक्ति बड़ी आसानी से खर्च किये होंगे। लेकिन जान-बूझकर इन सभी नेताओं ने चुनाव आयोग के सामने झूठे बजट पेश किये हैं जिनमें अपने चुनावों का खर्च निर्धारित राशि से कम दिखाया है । इस तरह इन सभी गांधीवादी नेताओं ने गैर कानूनी ढंग से चुनाव जीते हैं । संवैधानिक दृष्टि से इसलिए यह "गैर सरकार" है जिसकी सत्ता अवैधानिक है और इसलिए इसका अस्तित्व अधार्मिक है । अतः इनको उखाड़ फेंकना सर्वथा वैधानिक, न्याय संगत और धर्मकार्य माना जाना चाहिये ।
लेकिन क्या केवल सरकार बदलने से ही देश में सामाजिक व आर्थिक क्रान्तिकारी परिवर्तन सम्भव हो सकता है इसमें सन्देह है। हमारे विचारकों के सामने आज सबसे प्रमुख समस्या यह है कि किस प्रकार कम से कम समय में सामाजिक-आर्थिक- राजनयिक क्रान्तिकारी परिवर्तन लाये जा सकें । अभी तक राजनयिक व आदर्शों की दृष्टि से विदेशों की राजधानियों से हमें पथ प्रदर्शन मिलता रहा, लेकिन अब समय आ चुका है कि हम दूसरों से