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24 फिलासफी एण्ड सोशल एक्शन
आज की वर्तमान स्थिति में जबकि पाषाणयुगी औजारों से चिथड़ों में लिपटी निरक्षर महिला गगनचुम्बी अट्टालिकाओं, बैंकों और परमाणु शक्ति के बड़े-बड़े संस्थानों का निर्माण करती हैं जबकि उसको यह भी पता नहीं होता कि इन भवनों से क्या लाभ होगा। उस महिला की सन्तति शायद ही कभी उन भवनों की देहली पर कदम रख पावेंगी। रविन्द्रनाथ ठाकुर की काव्य साधना को देश के करोड़ों मजदूरों और किसानों ने शायद ही कभी पहचाना है । 'गरीबी हटाओ' के नारों से बनी सरकार के शाही भवनों के इर्द-गिर्द मानवता कराह रही है । लेकिन हमारे शासकों, शिक्षा अधिकारियों, समाज सुधारकों और देश के दार्शनिकों ने जन मानव की मुक्ति के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये हैं। इसमें संदेह नहीं कि बड़े ऊंचे-ऊंचे सुधारात्मक कानून पास किये जा चुके हैं और देश की हालत पर दर्जनों रिसर्च निबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं। लेकिन आमूल-चूल परिवर्तन लाने के लिए सांस्कृतिक क्रांति का कोई भी रचनात्मक कदम नहीं उठाया जा सका। भारतीय संविधान में जाति धर्म और सैक्स में सभी नागरिकों को समान मानने का आग्रह है लेकिन स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में हमने एक नयी तरह की जाति-व्यवस्था को जन्म दिया है। फिर से हमारे नगरों की कालौनियां आमदनी के आधार पर बट गई हैं और अब हम अपने सामाजिक संबंध और अपनी उच्चता का दावा हमारे रहने की बस्तियों के आधार पर करते हैं न कि सामाजिक उपयोगिता और मानवीय गुणों के बल पर । अन्याय मूलक सुखी जीवन की सम्भावना का आधार है-कर्मवाद जिसे भारतीय परम्परा में अदृष्ट कहा गया है। समाज की दोषपूर्ण अर्थ व्यवस्था को, लाखों करोड़ों के दुःख कष्टों को यह कह कर उपेक्षित कर देना कि वे उनके अदृष्ट--पिछले जन्मों का दुष्फल है और चन्द भ्रष्ट, क्रूर व कुटल शोषकों के ऐय्याशी जीवन को यह मानकर सहे जाना कि वे किसी पूर्व जन्म में धर्मात्मा रहे होंगे--तर्क शून्य अंध परम्परा है। भौतिकवादी नैतिकता के समर्थक एपिक्यूरस (६०० ई. पू.) का कहना था : “जो जीवन विचार पूर्ण, सम्मान जनक और न्याय मूलक न हो उसे सुखी नहीं माना जा सकता।" क्योंकि वैसे "सुखी" अस्तित्व में अत्यधिक मानसिक कुण्ठाएं व ग्रंथियां होंगी जो स्वयं व्यक्ति व उसके समाज को देर-सबेर विषाक्त करती रहेंगी।
हम ऐसी व्यवस्था या जीवन को वास्तव में सुखी कहेंगे जिसमें विरासत में मिले प्रकाश, सुख और ज्ञान से अधिक ज्ञान व विकास अपने पीछे छोड़ते जायें। समाज में पीड़ा व अन्याय को यथासम्भव पहले से कम करते जावें। इस प्रकार भौतिकवादी नैतिकता के मानदण्ड में सुख व न्याय व्यवस्था की सीमाएं हमारे इह-लौकिक जीवन से सम्बन्धित हैं। इसके परे अदृष्ट कर्म व अस्तित्व की कल्पना के आधार पर इहलोक में अन्याय की यथास्थिति को कायम रखना नहीं। परम्परावादी चिन्तन और धार्मिक परम्परा में यथास्थिति को बनाये रखकर न्याय व सुख की वास्तविकता किसी कल्पनाजन्य परलोक में स्वीकार कीजाती है। भौतिक नीति-शास्त्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान यही है कि उसने कल्पनाजन्य स्वर्ग में प्राप्तव्य न्याय व्यवस्था की सम्भावनाओं को इस धरा पर और हर मनुष्य और आम जनता के लिये स्वीकार्य और व्यवहार्य सिद्ध कर दिया है।
अब बच्चे अपंग व विकृत मस्तिष्क किसी दैवी प्रकोप या कर्मफल से पैदा नहीं होते बल्कि उनका भौतिकी कारण होता है जिसे ज्ञान के आधार पर वैज्ञानिक तकनीक से सुधारा जा सकता है । परम्परावादियों का यह कथन कि--मनुष्य केवल रोटी के सहारे ही नहीं जीताहेत्वाभास पर आधारित है । वास्तविकता तो यह है कि जीवन की कल्पनात्मक व कलात्मक विधाओं के विकास के लिये रोटी का संवल अनिवार्य है। और परम्परावादी यह भूल जाते हैं