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“साहित्यकार की प्रतिबद्धता का अर्थ है कि वह समाज, मानवीय संबन्धों, विभिन्न सामाजिक संघटनामों की व्याख्या करने में एक वर्ग विशेष-श्रमजीवी वर्ग की जीवन दृष्टि अपनाये और कला माध्यम से स्वयं अपना परिष्कार करते हुए पूरे समाज का परिष्कार करने में योगदान करे।"
साहित्यकार की प्रतिबद्धता : एक सृजनात्मक तत्व
राजीव सक्सेना
साहित्यकार की रचनात्मकता के मूल्यांकन में उसकी विचारधारा और अपने समय में उसकी सामाजिक स्थिति के अध्ययन और विश्लेषण को सदा महत्व दिया जाता रहा है। सगुण-निर्गुण उपासना, द्वैत-अद्वैत सिद्धान्त, दर्शनशास्त्रों में से किर की संलग्नता, विभिन्न भक्ति सम्प्रदायों या समाज-सुधार आन्दोलनों के प्रति रचनाकार का दृष्टिकोण और उसकी भूमिका आदि की चर्चा से हमारे आलोचना ग्रन्थ भरे पड़े हैं। किन्तु हाल के वर्षों में, विशेषकर दूसरे विश्व युद्ध के बाद शीत-युद्ध के काल में, साहित्यकार की प्रतिबद्धता के विरोध में अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं जिन्हें मोटे रूप से आधुनिकतावाद का सार तत्व माना जाता है ।
वास्तव में, प्रतिबद्ध शब्द भी आधुनिक युग की उपज है । अब तक साहित्यकार अपनी सामाजिक स्थिति के कारण स्वभावतः शासक वर्गों के निकट ही बना रहता था। विद्रोही सन्त-साहित्यकार भी सामन्ती शासकों के लिए कोई खतरा नहीं बन सके क्योंकि उन्होंने केवल समाज-सुधार और समाज की विभिन्न श्रेणियों के बीच मानवीय सम्बन्धों की स्थापना की ही मांग की। किन्तु पूजीवादी व्यवस्था के उदय के साथ एक ऐसे वर्ग का, मजदूर वर्ग का, उदय हुआ जो पूरी शोषण व्यवस्था को आमूल नष्ट कर एक ऐसी व्यवस्था की स्थापना करने में समर्थ है जिसमें अब तक के शोषक वर्गों (राजा-महाराजाओं, सामन्तों, पूंजीपतियों, जमींदारजागीरदारों आदि) का अस्तित्व तक नहीं रह जायेगा । आज समाज में प्रभुत्वशीली पूंजीपति वर्ग और उसके मित्रों (विश्व साम्राज्यवाद और स्थानीय जमींदार तथा चोर व्यापार श्रेणी) के विरुद्ध मजदूर वर्ग तथा उसके मित्रों (किसान और बुद्धिजीवी श्रेणी तथा विश्व समाजवा दी खेमा) का संघर्ष ऐसे निर्णयकारी चरण में पहुंच गया है कि साहित्यकार को इन दोनों में से एक का वरण करना अनिवार्य हो जाता है। अगर वह तटस्थ होने का नाटक करता है तो उसका अर्थ है कि अमल में वह प्रभुत्वशील वर्ग के साथ है और श्रमजीवी वर्ग का साथ नहीं देना चाहता।
अतः आज प्रतिबद्धता का अर्थ है कि इस युग के महान क्रान्तिकारी संघर्ष में साहित्यकार श्रमजीवी वर्ग के साथ है।
यह संघर्ष श्रमजीवी वर्ग के लिए राजसत्ता प्राप्त करने का राजनीतिक संघर्ष मात्र नहीं है । यह संघर्ष सदियों से शासक वर्गों द्वारा प्रचलित उन मान्यताओं, जीवन-मूल्यों, नैतिक आदर्शों आदि के विरुद्ध भी है जिनके आधार पर मनुष्य के ऊपर क्रूर व्यवस्थाओं को अब तक