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३७.. यह ठीक है कि हेमचंद्र के यनति के नियमा
नुसार वह अ अधवा आ के बाद लिखा जाए। उस नियम का पालन करना क्या आपको पसन्द है १ अथवा सभी स्थानों पर उसका उपयोग करना आपको मंजूर है ? यति को प्राकृत भाषा की विशेषता मानकर केवल जैन साहित्य में ही उसका स्वीकार किया जाए और नाटाकेंसहित अजैन साहित्य में वह दर्लक्षित हो १ ससंगति कायम रखने के लिए अन्य
कोई तरीका है ? ३९. आगमों अकारान्त नामों के रूप एकारान्त
एवं ओकारान्त पाये वाते है। इन दोनों के रूप केवल अर्धमागधी के एवं जैन शौरसेनी के स्वीकृत स्वीकृत करना कहाँ तक उचित होगा १ यह खेद शंच ग्रंथ प्राचीन या अवींचीन हो अथवा गदय वा पदय
से संबन्धित नहीं किया जा सकेगा। ४०. स्वरों के अनुवा सिकीकरण की विशिष्टता मान्य
करने से शब्दान्नक्रम पर कोई परिणाम नही होगा किन्तु अनुस्वार यदि एक वर्ण मान्य हो तो उसका शब्दानुक्रम पर परिणाम होगा। क्या यह आपको.... मान्य है ? यदि न हो तो आप कौनसा पर्याय
सूचित करेंगे? ४१. न एवंण प्रयोग यदि एकाध नियम व्दारा
'निश्चित कर लें तो मान्य विकल्प के उध्दरण का अमान्य विकल्प के साथ उल्लेख करना क्या
आवश्यक होगा ? ४२. शब्दों के अधिक पर्याय यदिलेने हो तो अधिक
भिन्न शबदों का कोश में अन्तर्भाव करना पडेगा उदा.- "नयन" के नयण नअण णयण, णअण हृदय के हियय, हिअय, हिअअ, हिअं। फिर भी
प्रमुख शब्द का चुनाव करना अनिर्णित रहेगा। ४३.
महाप्राण व्यंजन की द्विरूक्ति में अल्पप्राण को महाप्राण के साथ जोडकर लिखना पडेगा। इससे
अक्षरानुक्रम साध्य होगा | क्या यह उचित होगा? ४४. प्राथमिक अवस्था में यदि कोई वणे मान्य
रखा जाये, तो क्या सभी अवस्थाओं में वही पध्दति स्वीकृत करनी होगी ?