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छहढाला में पं. दौलतरामजी कहते हैं कि संसारी जीव पितृ व मातृ पक्ष की ताकत, रूप, ज्ञान, धन, बल, तपस्या तथा अपने उच्च पद मान-कषायादि के वशीभूत होकर अपने मूल स्वरूप व अपने स्वजनों की अवहेलना कर विनाश को प्राप्त होता है। मार्दव धर्म की साधना सीख देती है कि इस असार संसार में कोई भी वस्तु शास्वत नहीं है और न ही सुख प्रदान करने वाली है इसलिए वस्तु का अहंकार करके गर्व से फूलना नहीं चाहिए। हम सभी जानते हैं कि बलशाली रावण जो कि तीन खण्ड का अधिपति था, उसने भी अहंकार के अंधकार में अपने ही हाथों से अपने बुद्धि विवेक व भौतिक धन सम्पदा व देहादि का पतन किया। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और सुन्दर शरीर से युक्त होने पर भी अहंकार नहीं करना जिस प्रकार बधिर मनुष्य के समक्ष वीणा, अन्धे के सामने चपल लोचना स्त्री और मृत मनुष्य के ऊपर डाली पुष्प माला व्यर्थ है उसी प्रकार अभिमानी मनुष्य का जीवन निष्फल है। किसी ने दही-बड़े से पूँछा कि भाई तुम बड़े क्यों हो तो उसने कहा कि दही में पड़ा हूँ इसलिए बड़ा हूँ। झुकना शालीनता का गुण होता है और अकड़कर चलना अहंकार को दर्शाता है। झुककर चलना मानवता की शान होती है अकड़कर चलना तो मुर्दे की पहचान होती है। मार्दव धर्म विनय धारण करने का साधन व साध्य दोनों है क्योंकि सत्य ही है - विनय महा धारे जो प्राणी, शिव वनिता की सखी बखानी। मान उस बिष रूपी बेल के समान है जिसके हरे भरे रहने से जीव त्रियंच और नरकगति का पात्र बन जाता है और इसका त्याग करने पर मुक्ति पथ की ओर अग्रसर होजाता है। कहा भी हैमान बढ़ाई कारने क्यों मर रहा मूढ़। मरकर हाथी होयगा धरती लटके सूंड।। बकरा जो में में करे. अपनी खाल खिचाय। मैंना जो 'मैं' 'ना' कहे, दूध भात नित खाय।। उत्तम आर्जवउत्तम आर्जव धर्म का अर्थ है कि कपट व मायाचारी न करने की साधना ताकि संकल्प और दृढ़ होसके। किसी अन्य के प्रति कपटपूर्ण व्यवहार हमारे स्वार्थ, लालच व ईर्ष्या आदि विकारी भावों की उपस्थिति को दर्शाता है। इस व्यवहार को असलीजामा पहनाने से पहले असत्य का तानाबाना अपने मन में बुनना होता है ताकि वह उसके समक्ष प्रकट न हो जाए। जरा विचार करें तो हम पाते हैं कि इस कपट से हम दूसरों को तो भौतिक नुकसान पहुंचाने में भले ही तथाकथित रूप से सफल हो जाते हों किन्तु सही मायनों में हमारे आन्तरिक मूल गुणों सकारात्मक शक्तियों पर जो कुठाराघात होता है उसकी भरपाई हम नहीं कर सकते। इसलिए हमें कपट रूप व्यवहार कभी नहीं करना चाहिए। सदैव अपने मन वचन को एक