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वेया अहीया न भवंति ताणं, भुत्ता दिया निंति तमं तमेणं ।
जाया य पुत्ता न हवंति ताणं, को णाम ते अणुमन्नेज्ज एवं || १२ ||
“आश्रमधर्म का क्रमपूर्वक पालन करना अनिवार्य नहीं है । उसके अपवाद भी हो सकते हैं”-इस तथ्य को यह गाथा अधोरेखित करती है।
९) छांदोग्य : इस उपनिषद के सातवें अध्याय में 'नारद सनत्कुमार' संवाद अंकित किया है। इस प्रदीर्घ संवाद में एक से एक श्रेष्ठ बातों की एक दीर्घ शृंखला प्रस्तुत की है। कहा है कि नाम से वाणी श्रेष्ठ है । वाणी से मन श्रेष्ठ है । इस प्रकार संकल्प -चित्त-ध्यान-विज्ञान-बल- अन्न- उदक-तेजआकाश- स्मरण - आशा प्राण-सत्य ये सब उत्तरोत्तर श्रेष्ठ माने हैं।
श्रेष्ठता पर आधारित इस प्रकार की अर्धतार्किक और अतार्किक सारणियाँ प्राचीन जैन ग्रन्थों में पायी नहीं जाती । केवल इसी उपनिषद में ही नहीं किन्तु अन्यत्र भी कनिष्ठता-श्रेष्ठता पर आधारित वैचारिक शृंखलाएँ पायी जाती हैं ।१८
१०) बृहदारण्यक : इस उपनिषद में चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति, उनकी श्रेष्ठ-कनिष्ठता एवं देवों में चातुर्वर्ण्य की व्यवस्था, इन सबके बारे में एक प्रदीर्घ विवेचन है । आरम्भ में कहा है कि (ब्राह्मणाभिमानी ) ब्रह्म से पहले ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई ।"
जैन परम्परा में जन्मजात वर्णव्यवस्था को कहीं भी मान्यता नहीं दिखायी देती । जो भी वर्ण हैं, वे सब कर्म के अनुसार ही दिये गये हैं । उत्तराध्ययन के पच्चीसवें अध्ययन के सुप्रसिद्ध गाथा में कहा है कि -
न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ।। २९ ।। समयाए समणो होई, बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ||३०|| कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ ।
वइस्सो कम्पुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ||३१।।
नमूने के तौर पर दिये हुए उपरोक्त तात्त्विक समीक्षा से यह तथ्य उजागर होता है कि मोक्ष एवं आत्मासम्बन्धी अवधारणाओं में साम्य होने के बावजूद भी, अनेक तात्त्विक एवं सामाजिक मुद्दों में, उपनिषद और जैन परम्परा में अत्यन्त मूलगामी भेद हैं ।
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