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रूढ जैन मान्यताओं के अनुसार केवलज्ञान की अवस्था में दर्शनावरणीय कर्म का क्षय होता है । केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद अगर व्यक्ति जीवित रहता है तो वह बिलकुल नींद नहीं लेता । यह अवधारणा व्यावहारिक दृष्टि से ठीक नहीं जंचती तथापि निद्रा के पाँच प्रकारों में निहित मनोविश्लेषणात्मक वर्णन उपनिषद से भिन्न होकर भी खास लक्षणीय है।
७) तैत्तिरीय : पंचकोश का सिद्धान्त' इस उपनिषद की विशेषता है । उपनिषदों के अभ्यासकों ने यह पंचकोशात्मक सिद्धान्त इतना अधोरेखित किया है कि उपनिषदों के प्रमुख सिद्धान्तों में से, वह एक बन गया है । ये पाँच कोश क्रम से अन्नमय-प्राणमय-मनोमन-विज्ञानमय और आनन्दमय नाम से प्रसिद्ध है ।६५ ___उपनिषद के पंचकोशात्मक वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि ये मानों पुरुष के याने जीवात्मा के एक के अन्दर एक होनेवाले पाँच कोश हैं तथा पहले से अनन्तर का कोश श्रेष्ठ है।
जैन तत्त्वज्ञान में 'कोश' शब्द तो प्रयुक्त नहीं किया है लेकिन अलग पारिभाषिक शब्दों में पाँच कोश की उपपत्ति हम लगा सकते हैं । जैन परिभाषा में अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोश पुद्गलस्वरूप ही है क्योंकि बाह्यशरीर, प्राण और मन जैन अवधारणा के अनुसार पुद्गल के ही पर्याय हैं ।६६ आत्मा में अनन्त चतुष्टय निहित है । उसमें ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सौख्य का निर्देश किया जाता है । उपनिषद कथित विज्ञानमय और आनन्दमय कोशों की उपपत्ति, हम अनन्त चतुष्टय में निर्दिष्ट संकल्पनाओं के द्वारा सरलता से कर सकते हैं ।
उपनिषदों के अनुसार प्रत्येक पुरुष पाँच कोशों से परिपूर्ण है । जैन अवधारणा के अनुसार प्रत्येक जीव चाहे वह वनस्पति हो, कीट-पतंग हो, पशु-पक्षी हो या मनुष्य, क्रम से चार-पाँच और छह पर्याप्तियों से पूर्ण है । छह पर्याप्तियों का नामनिर्देश इसप्रकार किया जाता है - आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्श्वासपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति, मनपर्याप्ति । ८) ऐतरेय : इसके दूसरे अध्याय में कहा है कि पुत्र उत्पन्न होने के बाद गृहस्थ (पिता) उसका वर्धन करता है । पुत्ररूप सन्तति का वर्धन खुद का ही वर्धन है क्योंकि लोकविच्छेद न होने के लिए, पुत्रादिरूप सन्तति आवश्यक है । सन्तति के रूप में पिता ही मानों दूसरी बार जन्म लेता है ।६७
गृहस्थाश्रम एवं गृहस्थों के कर्तव्यों को महत्त्व देकर वर्णन करना यह वैदिक या ब्राह्मण परम्परा की विशेषता है । 'पुत्ररूप सन्तति को जन्म देकर ही गृहस्थाश्रम की इतिकर्तव्यता होती है',-इस प्रकार की गृहस्थाश्रमनिष्ठ अवधारणा जैनग्रन्थों में नहीं पायी जाती । उत्तराध्ययन के चौदहवें 'इषुकारीय' अध्ययन में इस विचार की प्रतिक्रिया स्पष्ट रूप से दिखायी देती है । विवाह और सन्तानोत्पत्ति करने के लिए पुत्रों को प्रेरित करनेवाले पुरोहित को उसके विरक्तचित्त पुत्र कहते हैं कि -