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उपनिषदों का जैन तत्त्वज्ञान पर प्रभाव : एक समीक्षा
('विश्वशान्ति एवं अहिंसा' इस विषय पर, कर्नाटक विश्वविद्यालय (धारवाड) के संस्कृत विभागद्वारा आयोजित राष्ट्रीय चर्चासत्र में (२२-२३ फेब्रुवारी २०१३) प्रस्तुत किया जानेवाला
शोधनिबन्ध)
विषय व मार्गदर्शन -: डॉ. नलिनी जोशी
घर का पता : (प्राध्यापिका, जैन अध्यासन, पुणे विद्यापीठ) डॉ. अनीता सुधीर बोथरा शोधछात्रा -: डॉ. अनीता बोथरा.
प्लॉट नंबर ४४, लेन नंबर ८, (संशोधक सहायिका, जैन अध्यासन, पुणे विद्यापीठ) ऋतुराज सोसायटी,
पुणे ४११०३७
दिनांक : १२/०२/२०१३ शोधनिबन्ध के शीर्षक में निहित गृहीतक :
तौलनिक दृष्टि से जैनविद्या का अभ्यास करनेवाले संशोधकों के मस्तिष्क में प्राय: विचारों के तीन प्रारूप पाये जाते हैं।
१) वैदिक या ब्राह्मण परम्परा से श्रमण परम्परा की अलगता दिखाने के लिए 'बौद्ध' और 'जैन' - इस प्रकार की पदावलि उपयोजित की जाती है । इसमें अन्तर्भूत है कि जो जो बौद्धों ने किया वहीं जैनों ने किया । दूसरी बात यह कि जैन परम्परा बहुत ही प्राचीन होने पर भी हमेशा बौद्धों का उल्लेख प्रथम और जैनों का बाद में किया जाता है।
२) दूसरा प्रारूप यह है कि वैदिक या हिन्दु परम्परा को बहुत ही परिवर्तनशील, समय के अनुरूप ढलनेवाली एवं लचीली होने के तौर पर माना गया है । जैनियों के समयानुसारी परिवर्तन कई बार दुर्लक्षित किये गये हैं।
३) तीसरा महत्त्वपूर्ण प्रारूप यह है कि प्रभाव की दिशा हमेशा वैदिक या हिन्दुओं से शुरू होती है और प्रभावित होनेवाले हमेशा जैन ही होते हैं । यही प्रारूप मन में रखकर शोधनिबन्ध का विषय दिया गया है।
“उपनिषदों में निहित विचार पूर्वकालीन और बहुतही प्रभावी हैं और जैन परम्परा में, विशेषत: तत्त्वज्ञान में मानों उपनिषदों को ही आकर ग्रन्थ मानकर महत्त्वपूर्ण विचार चयनित किये हैं"-यह भावार्थ शोधनिबन्ध के शीर्षक में समाहित है । इस गृहीतक की विविध पहलुओं से समीक्षा करना इस शोधनिबन्ध का उद्देश्य है।