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________________ रूप में औरों की अपेक्षा उसकी तपस्या बड़ी होती है। पत्रकार और दूसरे बुद्धिजीवी दूसरे वर्ग की भोग-संसक्त जीवन-चर्या को ही अपना आदर्श मान लें तो फिर मूल्यों की सुरक्षा का आश्वासन क्या रह जाएगा? हर काल में बौद्धिक वर्ग की भूमिका प्रतिपक्ष की भूमिका रही है। इसी वर्ग ने अपने समय की चुनौती-वाहिनी का अपनी मनीषा और धवल चरित्र से मुकाबला किया है, सांस्कृतिक सुस्ती के काल में नये चैतन्य की रचना की है। इसी विशिष्ट भूमिका की आज अपेक्षा है। धवल-चरित्र ही समाज की अपेक्षा पूरी कर सकता है। और कृती-पुरुष आत्मावलोचन को विकास की अनिवार्य शर्त मानते हैं। अपनी प्रातिभ-साधना द्वारा हिन्दी पत्रकारिता को विशिष्ट धरातल पर प्रतिष्ठित करने वाले अज्ञेय ने गहरे ममत्व के साथ साम्प्रतिक पत्रकारिता-परिदृश्य पर आत्मावलोचन की शैली में विचार किया था। शुभ चिंता के आवेग में पीड़ित होकर अज्ञेय ने टिप्पणी की थी, जो पत्रकारिता के धर्म से जुड़े बन्धुओं के लिये ध्यातव्य है, "हिन्दी पत्रकारिता के आरम्भ के युग में हमारे पत्रकारों की जो प्रतिष्ठा थी वह आज नहीं है। साधारण रूप से तो यह बात कही जा ही सकती है, अपवाद खोजने चलें तो भी यही पावेंगे कि आज का एक भी पत्रकार, सम्पादक वह सम्मान नहीं पाता जो कि पच्चास-पच्चहत्तर वर्ष पहले के अधिकतर पत्रकारों को प्राप्त था। आज के सम्पादक, पत्रकार अगर इस अंतर पर विचार करें तो स्वीकार करने को बाध्य होंगे कि वे न केवल कम सम्मान पाते हैं, बल्कि कम सम्मान के पात्र हैं या कदाचित् सम्मान के पात्र बिल्कुल नहीं हैं। जो पाते हैं वह पात्रता से नहीं, इतर कारणों से। अप्रतिष्ठा का प्रमुख कारण यह है कि उनके पास मानदंड नहीं है। यही हरिश्चन्द्र कालीन सम्पादक-पत्रकार या उतनी दूर न जावें तो महावीर प्रसाद द्विवेदी का समकालीन भी हम से अच्छा था। उनके पास मानदंड थे, नैतिक आधार थे और स्पष्ट नैतिक उद्देश्य भी। उनमें से कोई ऐसे भी थे जिनके विचारों को हम दकियानूसी कहते, तो भी उनका सम्मान करने को हम बाध्य होते थे, क्योंकि स्पष्ट नैतिक आधार पाकर वे उन पर अमल करते थे - वे चरित्रवान थे। आज विचार क्षेत्र में हम अग्रगामी भी कहला लें तो कर्म के नैतिक आधारों की अनुपस्थिति में निजी रूप से हम चरित्रहीन ही हैं और सम्मान के पात्र नहीं है।" पत्रकार-कुल के प्रख्यात कृती पुरुष की तीखी टिप्पणी उद्धृत करने की मेरी लाचारी, आशा है, क्षम्य समझी जाएगी। पत्रकार के राष्ट्रीय दायित्व-बोध पर विचार करते 'प्रताप' सम्पादक गणेश शंकर विद्यार्थी ने जो बात कही थी, आज के श्रीहीन संदर्भ में अनायास याद आती है। अपने समानधर्मा पत्रकारों को उनके गुरुतर जातीय दायित्व के प्रति सचेत करने सन् 1930 में गणेशशंकर विद्यार्थी ने लिखा था, “पैसे का मोह और बल की तृष्णा भारतवर्ष के किसी भी नये पत्रकार को ऊंचे आचरण के पवित्र आदर्श से बहकने न दे।" हिन्दी के समाचार पत्र भी उन्नति के राजमार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं। मैं हृदय से चाहता हूं कि उनकी उन्नति उधर हो या न हो, किन्तु कम-से-कम आचरण के क्षेत्र में पीछे न हटें। मूल्यों के पक्षधर किसी भी जागरुक व्यक्ति की यह न्यूनतम अपेक्षा हो सकती है। इस अपेक्षा के प्रति सुमुख-सचेत होकर ही पत्रकार अपने दायित्व का निर्वाह कर सकते हैं, अपनी उज्ज्वल विरासत को समृद्धतर कर सकते हैं। 7-बी, हरिमोहन राय लेन, कलकत्ता - 700 015 हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212283
Book TitleHindi Patrakarita Virasat ki Roshani aur Sampratik Dasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushn Bihari Mishr
PublisherZ_Jain_Vidyalay_Hirak_Jayanti_Granth_012029.pdf
Publication Year1994
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size609 KB
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