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________________ ६५० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : षष्ठम खण्ड उपजी धुनि अजपा की अनहद, जीत नगारेवारी। झड़ी सदा आनन्दधन बरसत, बन मोर एकनतारी ॥ जैनसाधकों ने एक और प्रकार के आध्यात्मिक प्रेम का वर्णन किया है । साधक जब अनगार दीक्षा लेता है तब उसका दीक्षाकुमारी अथवा संयमश्री के साथ विवाह सम्पन्न होता है। आत्मारूप पति का मन शिवरमणी रूप पत्नी ने आकर्षित कर लिया-"शिवरमणी मन मोहीयो जी जेठे रहे जी लुभाय ।"५२ . कवि भगवतीदास अपनी चूनरी को अपने इष्टदेव के रंग में रंगने के लिए आतुर दिखाई देते हैं । उसमें आत्मारूपी सुन्दरी शिवरूप प्रीतम को प्राप्त करने का प्रयत्न करती है। वह सम्यक्त्व रूपी वस्त्र को धारण कर ज्ञान रूपी जल के द्वारा सभी प्रकार का मल धोकर सुन्दरी शिव से विवाह करती है। इस उपलक्ष में एक सरस ज्योनार होती है जिसमें गणधर परोसने वाले होते हैं जिसके खाने से अनन्त चतुष्टय को प्राप्ति होती है । तुम्ह जिनवर देहि रंगाइ हो, विनवड़ सषी पिया शिवसुन्दरी। अरुण अनुपम माल हो मेरी भव जल तारण चुनड़ी ॥२॥ समकित वस्त्र विसाहिले ज्ञान सलिल संग सेइ हो। मल पचीस उतारि के दिढिपन साजी देइ जी ॥मेरी॥३॥ बड़ ज्ञानी गणधर तहाँ भले, परोसणहार हो। शिव सुन्दरी के ब्याह को, सरस भई ज्यौंणार हो ॥३०॥ मुक्ति रमणि रंग त्यो रमैं, वसु गुण मंडित सेइ हो । अनन्त चतुष्टय सुष धणां जन्म मरण नहि होइ हो ॥३२॥५३ आध्यात्मिक होली जनसाधकों और कवियों ने आध्यात्मिक विवाह की तरह आध्यात्मिक होलियों की भी सर्जना की है । इसको फागु भी कहा गया है। यहाँ होलियों और फागों में उपयोगी पदार्थों (रंग, पिचकारी, केशर, गुलाल, विविध वाद्य आदि) को प्रतीकात्मक ढंग से अभिव्यंजित किया गया है । इसके पीछे आत्मा-परमात्मा के साक्षात्कार से सम्बद्ध आनन्दोपलब्धि करने का उद्देश्य रहा है। यह होली अथवा फाग आत्मारूपी नायक शिवसुन्दरी रूपी नायिका के साथ खेलता है। कविवर बनारसीदास ने “अध्यात्म फाग में 'अध्यातम बिन क्यों पाइये हो, परम पुरुष को रूप ।' अघट अंग घट मिल रह्यो हो महिमा आगम अनूप।" की भावना से वसन्त को बुलाकर विविध अंग-प्रत्यंगों के माध्यम से फाग खेली और होलिका का दहन किया । 'विषम विरस' दूर होते ही 'सहज वसन्त' का आगमन हुआ । 'सुकचि-सुगंधिता' प्रगट हुई । 'मन-मधुकर' प्रसन्न हुआ। 'समति-कोकिला' का गान प्रारम्भ हुआ। अपूर्व वायु बहने लगी। 'भरमकुहर' दूर होने लगा । 'जड़ जाड़ा' घटने लगा। 'माया-रजनी' छोटी हो गई । 'समरस शशि' का उदय हो गया। 'मोह-पंक' की स्थिति कम हो गई । 'संशय-शिशिर' समाप्त हो गया। 'शुभ पल्लवदल', लहलहा उठे । 'अशुभ पतझर' होने लयी। 'मलिन विषयरति' दूर हो गई, 'विरति बेलि' फैलने लगी, 'शशि विवेक' निर्मल हो गया, 'थिरता अमृत' हिलोरें लेने लगा। 'शक्ति सुचन्द्रिका' फैल गई, 'नयन चकोर' प्रमुदित हो उठे, 'सुरति अग्नि ज्वाला' ममक उठी, 'समकित सूर्य', उदित हो गया, 'हृदय कमल' विकसित हुआ, 'सुयश मकरंद' प्रगट हो गया, 'दृढ़ कषाय हिमगिरि' गल गया, 'निर्जरा नदी' में धारणाधार 'शिव-सागर' की ओर बहने लगी, 'वितथ वात प्रभुता' मिट गई, 'यथार्थ कार्य' 'जाग्रत हो गया, वसन्त काल में जंगल भूमि सुहावनी लगने लगी।" बसन्त ऋतु के आने के बाद अलख अमूर्त आत्मा अध्यात्म की ओर पूरी तरह से झुक गयी। कवि ने फिर यहाँ फाग और होलिका का रूपक खड़ा किया और उसके अंग-प्रत्यंगों का सामंजस्य अध्यात्म-क्षेत्र से किया। 'नय चाचरि पंक्ति' मिल गई, 'ज्ञान-ध्यान' डफताल बन गया, 'पिचकारी पद' भी साधना हुई, 'संवरभाव गुलाल' बन गया, 'शुम भाव भक्ति तान में' 'राग विराग' अलापने लगा, 'परम रस' में लीन होकर दस प्रकार के दान देने लगा। दया की रसभरी मिठाई, तप का मेवा, शील का शीतल जल, संयम का नागर पान खाकर निर्लज्ज होकर गुप्ति-अंग प्रकट होने लगा, अकथकथा प्रारम्भ हो गई, उद्धत गुण रसिया मिलकर अमल-विमल रसप्रेम में सुरति की तरंगें हिलोरने लगीं। रहस्यभावना की पराकाष्ठा हो जाने पर परमज्योति प्रगट हुई। अष्टकर्मरूप काष्ठ जलकर होलिका की आग बुझ गई, पचासी प्रकृतियों की भस्म को भी स्नानादि करके धो दिया और स्वयं उज्ज्वल हो गया। इसके उपरान्त फाग का खेल बन्द हो जाता है, फिर तो मोह-पाश के नष्ट होने पर सहज आत्मशक्ति के साथ खेलना प्रारम्भ हो जाता है "नय पंकति चाचरि मिलि हो, ज्ञान ध्यान डफताल । पिचकारी पद साधना हो, संवर भाव गुलाल अध्यातम॥११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212279
Book TitleHindi Jain Kavya me Yog sadhna aur Rahasyawad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size2 MB
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