SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी जैन-काव्य में योगसाधना और रहस्यवाद ६४६ +mume-0+++++++++++++++++++ +++++++++0000000rnment-rammarri++++ प्रिय-मिलन ब्रह्ममिलन ही है । पति का मिलन होने पर उनकी सभी आशायें पूर्ण हो गयीं। उन्होंने पति के साथ रभस आलिंगन किया। साधक जीव जब ब्रह्म से मिलता है तो एकाकार हुए बिना नहीं रहता। इसी को परमसुख की प्राप्ति कहते हैं । ब्रह्म-मिलन का चित्रण दृष्टव्य है ___चोली खोल तम्बोलनी काढ्या गात्र अपार ।। __ रंग कीया बहु प्रीयसु नयन मिलाई तार ॥ मैया भगवतीदास का 'लाल' उनसे कहीं दूर चला गया इसलिए उसको पुकारते हुए वे कहते हैं लाल, तुम किसके साथ घूम रहे हो । तुम अपने ज्ञान के महल में क्यों नहीं आते। तुमने अपने अन्तर में झांककर कभी नहीं देखा कि वहाँ दया, क्षमा, समता और शांति जैसी सुन्दर नारियाँ तुम्हारे लिए खड़ी हुई हैं । वे अनुपम रूपसम्पन्न हैं । ४६ "कहाँ कहाँ कौन संग लागे ही किरत लाल, आवी क्यों न आज तुम ज्ञान के महल में । नेकहु बिलोकि देखो अन्तर सुदृष्टि सेती; कैसी कैसी नीकि नारी ठाड़ी हैं टहल में । एक ते एक बनी, सुन्दर स्वरूप घनी, उपमा न जाय बनी बाम की चहल में ।"* आनन्दघन की आत्मा भी अपने प्रियतम के वियोग में तड़पती दिखाई देती है। इसी स्थिति में कभी वह मान करती है तो कभी उपालम्भ देती है तो कभी भक्ति के प्रवाह में बहती है, कभी प्रिय के वियोग में सुध-बुध खो देती है "पिया बिन सुधि-बुधि भूली हो।"" विरह-भुजंग उसकी शैय्या को रात में खूदता रहता है, भोजन-पान करने की तो बात ही क्या? अपनी इस दशा का वर्णन किससे कहा जाय ?" उसका प्रिय इतना अधिक निष्ठुर हो जाता है वह उपालम्भ दिये बिना नहीं रहती। वह कहती है कि मैं मन, वचन और कर्म से तुम्हारी हो चुकी, पर तुम्हारी यह निष्ठुरता और उपेक्षा क्यों ? तुम्हारी प्रवृत्ति फूल-फूल पर मंडराने वाले भ्रमर जैसी है तो फिर हमारी प्रीति का निर्वाह कैसे हो सकता है । जो भी हो, मैं तो प्रिय से उसी प्रकार एकाकार हो चुकी हूँ जिस प्रकार पुष्प में उसकी सुगन्ध मिल जाती है। मेरी जाति भले ही निम्न कोटि की हो, पर अब तुम्हें किसी भी प्रकार के गुण-अवगुण का विचार नहीं करना चाहिए। पिया तुम निठुर भए क्यू ऐसे । मैं मन बच क्रम करी राउरी, राउरी रीति अनसें ।। फूल फूल भंवर कैसी भाउंरी भरत हो निबहै प्रीति क्यूं ऐसे । मैं तो पियतें ऐसि मिली आली कुसुम वास संग जैसें । ओछी जात कहा पर एती, नीर न हयै मैंसें। गुन-अवगुन न विचारों आनन्दघन कीजिये तुम हो तसे ॥ आनन्दघन की आत्मा एक दिन सौभाग्यवती हो जाती है । उसे उसका प्रिय (परमात्मा) मिल जाता है । अतएव वह सोलहों शृंगार करती है । पहनी हुई झीनी साड़ी में प्रेम प्रतीति का राग झलक रहा है। भक्ति की मेहंदी लगी हुई है, शुभ भावों का सुखकारी अंजन लगा हुआ है। सहज-स्वभाव की चूड़ियाँ और स्थिरता का कंकन पहन लिया है । ध्यान की उर्वशी को हृदय में रखा और प्रिय की गुणमाला को धारण किया। सुरति के सिन्दूर से मांग संवारी, निरति की वेणी सजाई । फलतः उसके हृदय में प्रकाश की ज्योति उदित हुई । अन्तःकरण में अजपा की अनहद ध्वनि गुंजित होती है और अविरल आनन्द की सुखद वर्षा होने लगती है। आज सुहागन नारी, अवधू आज । मेरे नाथ आप सुध, कीनी निज अंगचारी । प्रेम प्रतीति राग रुचि रंगत, पहिरे झीरी सारी। महिदी भक्ति रंग की राची, भाव अंजन सुखकारी । सहज सुभाव चुरी में पैन्ही, थिरता कंकन भारी । ध्यान उरबसी उर में राखी, पिय गुनमाल अधारी । सुरत सिन्दूर मांग रंगराती, निरत बैनि समारी । उपजी ज्योति उद्योत घट त्रिभुवन आरसी केवलकारी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212279
Book TitleHindi Jain Kavya me Yog sadhna aur Rahasyawad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy