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________________ स्वयंभू आदि की कविताओं से प्रमाणित होता है / दोहा, सोरठा, चौपाई, छप्पय आदि कई सौ ऐसे नये-नये छन्दों की सृष्टि की जिन्हें हिन्दी कवियों ने बराबर अपनाया। हमारे विद्यापति, कबीर, सूर, जायसी, तुलसी आदि के ये कवि ही उपजीव्य और प्रेरक रहे हैं। उन्हें भुलाकर मध्य काल में हमें बहुत क्षति हुई। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार यह काल भारतीय विचारों के मंथन का काल है और इसीलिए महत्त्वपूर्ण है। हिन्दी के काव्य-रूपों के उद्भव और विकास का आरम्भ यही काल है / ये कवि और काव्य नाना दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं। जैन साहित्यकारों का प्रथम ध्येय यद्यपि अपने मत के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना था; तथापि वे साहित्य तत्त्व से पूर्ण थे। इन कवियों ने पुराणों से, अनुश्रुतियों से और लोककथाओं से आख्यान लेकर अपने काव्यों की रचना की। स्वयंभू की सर्वोत्कृष्ट रचना पउमचरिउ है जिसमें कथा-प्रसंगों की मार्मिकता, चरित्र चित्रण की पटुता, प्रकृति वर्णन की उत्कृष्टता और अलंकारिक तथा हृदय+ स्पर्शी उक्तियों की प्रचुरता है। इनकी राज-स्तुतियां तो ज्यों-की-त्यों आदि काल की प्रमुख प्रवृत्ति ही बन गई / स्वयंभू की अन्य कृतियों में रिट्ठणेमि चरिउ, पंचमी चरिउ, स्वयंभू छन्द आदि हैं। पुष्यदन्त का णयकुमार चरिउ, जसहर चरिउ, महापुराण, तिसद्धि महापुरिस गुणालंकार, धनपाल की भविसयत्त कहा, योगीन्द्र का परमात्मप्रकाश, हेमचन्द्र का शब्दानुशासन, मेरुतुंग की प्रबंध चितामणि, देवसेन का पाहड दोहा आदि मुख्य कृतियां है। इन कवियों ने मुक्तक और प्रबंध दोनों प्रकार की रचनाएं की जिनमें परवर्ती भाषा-काव्य की अनेक प्रवृत्तियों का बीज निहित था / रासोबंध नामक काव्य के विविध छंद समन्वित रूप का प्रयोग भी इसी काल में आरम्भ हुआ जिससे वीर गाथा का वर्णन करने वाले पृथ्वीराज रासो जैसे रासो काव्यों की परम्परा चली। हिन्दी साहित्य के इतिहास में जितनी रासो-संज्ञक रचनाएं जैन कवियों ने रची उतनी किसी ने नहीं। जैन विद्वानों एवं कवियों ने फाग और चर्चरी जैसे अनेक लोक-प्रचलित गानों का भी उपयोग किया है। कबीरदास के चांचर और तुलसीदास के सोहर आदि इसके प्रमाण हैं / आदिकाल के विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्य लोकप्रचलित काव्यों को धर्म-प्रचार के लिए अपनाते थे। हिन्दी काव्य में निर्गुणोपासक संतों के जिस प्रकार के दोहे मिलते हैं उनका ठीक वही रूप जैन कवि योगीन्द्र के परमात्म प्रकाश तथा योगसार और मुनि रामसिंह के पाहुड दोहे में मिलता है। जैन कथा काव्यों की प्रविधि की अनेक विशेषताएं भी परवर्ती हिन्दी काव्य में संक्रमित हुई हैं। हिन्दी का आदिकालीन साहित्य अपभ्रंश साहित्य से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है कि इसकी पृष्ठभूमि के बिना हिन्दी साहित्य का अध्ययन पूर्ण नहीं हो सकता। हिन्दी के कतिपय विद्वान् तो अपभ्रश साहित्य को भी 'पुरानी हिन्दी' 'प्राकृताभास हिन्दी' कहकर हिन्दी साहित्य में ही सम्मिलित कर लेते हैं। अपभ्रश का 80 प्र. श. साहित्य जैन कवियों द्वारा प्रणीत है / इस प्रकार हिन्दी के आरम्भिक आदिकाल में जैन कवियों का योगदान उल्लेखनीय है। हिन्दी के भक्तिकाल की समृद्धि में भी जैन कवियों, संतों एवं आचार्यों का उल्लेखनीय योगदान रहा / इस काल में भट्टारक सकल कीर्ति, भ० भवन कीति, भ० ज्ञान भूषण, ब्रह्म जिनदास, ब्रह्मश्च राज, ब्रह्मरायमल्ल, भ० शुभचन्द्र, बनारसीदास, समयसुन्दर, भूधरदास, धानत राय, ज्ञानसागर, जिन हर्ष आदि ने भक्ति की सरल रीति की भी अजस्र धाराएं प्रवाहित की। इन कवियों ने जन सामान्य की आवश्यकतानुसार साहित्य की विविध विधाओं का सृजन कर लोक-मानस को परितृप्त किया। इन कवियों का साहित्य जन सामयिक जीवन से कटा हुआ नहीं रहा। जन-सामान्य के निकट होने से इस काल के जैन कवियों द्वारा रचित साहित्य आध्यात्मिकता के साथ सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्ष को भी अपने में समाविष्ट करता है / काव्य के विविध रूपों के विकास और उस समय की चिन्तना का ज्ञान भी इसी के द्वारा प्राप्त होता है। भक्तिकाल में १५वीं शताब्दी के महाकवि ब्रह्म जिनदास ऐसे जैन कवि हैं जिन्होंने अपनी 70 से भी अधिक रचनाओं से मां भारती की सेवा की। इनके 'राम रास' और 'हरिवंश पुराण रास' हिन्दी की प्रसिद्ध एवं प्राचीनतम जैन रामायण और जैन महाभारत हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में ब्रह्म जिनदास अकेले ऐसे कवि हैं जिन्होंने विविध विषयक लगभग 50 रास संज्ञक काव्यों का सृजन किया। लोक भाषा में तुलसी से पूर्व 'राम रास' (र० का० सं 1508) की रचना कर ब्रह्म जिनदास ने हिन्दी राम काब्य परम्परा का सूत्रपात और नेतृत्व किया / रूपक काव्य परम्परा में 'परम हंस स्थल' की अपनी विशिष्ट छवि और भंगिमा है। ___ अन्य कवियों में भ० कुमुदचन्द्र, ब्र० जयसागर, रत्नकीर्ति, सुरेन्द्र कीर्ति, दौलतराम कासलीपाल, टोडरमल्ल, धीहल आदि हैं। इन कवियों ने हिन्दी साहित्य के विकास में जो कार्य किया वह स्वर्णाक्षरों में उल्लेखनीय है / जैन कवियों की हिन्दी सेवा प्रशंसनीय है। जैन कवियों के साहित्य में भारतीय अध्यात्म-धारा का प्रवाह देखा जाता है। हिन्दी साहित्य की आध्यात्मिक चेतना को आज तक जाग्रत और क्रमबद्ध रखने में जैन साहित्य की दार्शनिक संवेदना की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है / इस प्रकार हिन्दी साहित्य के इतिहास में आदिकाल से आज तक जैन कवियों की हिन्दी सेवा कथ्य और शिल्प, भाव-भाषा दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। जैन साहित्यानुशीलन 125 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212277
Book TitleHindi ke Vikas me Jain Vidwano ka Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Ranvaka
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages2
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size393 KB
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