________________ [ 111 આચાર્ય શ્રી હરિભદ્રસૂરિ ઔર ઉનકી સમરમયક્કા કહા सूर्यको भी शशांक, मृगांक आदि नामसे पहचानते थे। जैन प्रतिष्ठाविधान आदिके प्रसंगमें नव ग्रहोंका पूजन किया जाता है। इसमें नव ग्रहोंके नामसे अलग-अलग मन्त्रोच्चार होता है / इन मन्त्रोंमें सूर्यका मन्त्र आता है वह इस प्रकार है “ॐ हीं शशाङ्कसूर्याय सहस्रकिरणाय नमो नमः स्वाहा / " इस प्राचीनतम मन्त्रमें सूर्य या आदित्यको 'शशाङ्क' विशेषण दिया गया है। इससे पता चलता है कि एक जमानेमें चन्द्रकी तरह सूर्यको भी शशाङ्क, मृगाङ्क आदि नामसे पहचानते थे / अधिक सम्भव है कि इसी परिपाटीका अनुसरण करके ही आचार्य श्री उद्द्योतनसूरिने अपने कुवलयमाला कहा ग्रन्थकी प्रस्तावनामें समराइच कहा ग्रन्थको ही समरमयङ्का कहा नामसे उल्लिखित किया है। इस प्रकार मुझे पूर्ण विश्वास है कि समराइच्च कहा और समरमयङ्का कहा ये दोनों एक ही ग्रन्थके नाम हैं। [प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ,' टीकमगढ, ई. स. 1946 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org