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आचार्य श्री हरिभद्रसूरि और उनकी समरमयङ्का कहा __ . जो इच्छइ भवविरह, भवविरहं को न बंधए सुयणो ।
समयसयसत्थकुसलो, समरमियङ्का कहा जस्स ॥ दाक्षिण्याङ्क आचार्य श्री उद्योतनसूरि महाराजने अपनी प्राकृत कुवलयमाला कथाके प्रारम्भिक प्रस्तावनाग्रंथमें अनेक प्राचीन मान्य आचार्य और उनकी कृतियोंका स्मरण किया है और इस प्रसंगमें उन्होंने आचार्य श्री हरिभद्रसूरि, (जिनको, विरह अंक होनेसे विरहांक आचार्य माना जाता है) और उनकी समरमयङ्का कहाका भी स्मरण किया है। यही उल्लेख मैंने इस लेखके प्रारम्भमें दिया।
इस उल्लेखको देखते हुए पता चलता है कि आचार्य श्री हरिभद्रसूरि महाराजने समरमयङ्का कहा नामका कोई कथापंथ बनाया था। आचार्य श्री हरिभद्रसूरिकी कृतिरूप प्राकृत कथाग्रन्थ समराइच कहा मिलता है, परन्तु समरमयङ्का कहा ग्रन्थ तो आज तक कहीं देखने या सुननेमें नहीं आया है । अतः यह ग्रन्थ वास्तवमें कौन ग्रन्थ है, इस विषयको परीक्षा अतिलघु लेखमें करना है।
मुझे पूरा विश्वास हो गया है कि आचार्य श्री उद्योतनसूरिजीने समराइच कहाको ही समरमयङ्का कहा नामसे उल्लिखित किया है। प्रश्न यह उपस्थित होगा कि-समराइच्चकहा इस नाममें समर+आइच शब्द हैं तब समरमियंका नाममें समर+मियंका शब्द हैं । आइञ्चका अर्थ सूर्य है तब मियंक-(सं. मृगाङ्क)का अर्थ प्रचलित परिभाषाके रूपमें चन्द्र होता है। अतः समराइच्च और समरमियंक ये दो नाम एकरूप कैसे हो सकते हैं ? और इसी प्रकार समराइच्चकहा एवं समरमियंका कहा ये दो ग्रन्थ एक कैसे हो सकेंगे? इस विवादास्पद प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है
जैन प्रतिष्ठाविधिके ग्रन्थोंको देखनेसे पता चलता है कि एक जमानेमें चन्द्रकी तरह आदित्य
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