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________________ हमारे ज्योतिर्धर आचार्यश्री : आचार्य जीतमलजी महाराज : व्यक्तित्व दर्शन ११३ संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश में हजारों ग्रन्थों की रचना की । इसलिए जैन धर्म एक वैज्ञानिक धर्म है। जैन आगम साहित्य में प्रत्येक पदार्थ का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। राजन् ! आपने आगम साहित्य को पढ़ा नहीं है। अतः आपको ऐसा भ्रम हो गया है कि जैन आगमों में अनर्गल बातें हैं । वस्तुतः जैन आगमों में एक भी बात ऐसी नहीं है जो असंगत हो । राजा मानसिंह ने कहा आचार्य प्रवर ! आप कहते हैं कि आगम साहित्य में अनर्गल बातें नहीं है, तो देखिए जैन आगमों में बताया गया है कि जल की एक बूंद में असंख्य जीव हैं। यह कितनी बड़ी गप है। यदि कोई विद्वान् इसे सुने तो आगमों का उपहास किये बिना नहीं रह सकता । वह जैन आचार्यश्री ने पुनः गंभीर वाणी में कहा राजन् ! जिसकी दृष्टि जितनी तीक्ष्ण होगी वह उतनी सूक्ष्म वस्तु देख सकता है। तीयंकर सर्व सर्वदर्शी होते हैं। उनका कथन कभी मिथ्या नहीं हो सकता। उन्होंने जो कहा है वह अपने प्रत्यक्ष ज्ञान से देखकर कहा है । मानसिंह - - आचार्य प्रवर ! आपको ताज्जुब होगा कि हमारे वैदिक परम्परा के शास्त्रों में इस प्रकार की कहीं पर भी गये नहीं है जैसे कि जैन शास्त्रों में हैं। --- आचार्यश्री ने कहा राजन् ! किसी भी मत और सम्प्रदाय के सम्बन्ध में खण्डन करना हमारी नीति नहीं है। हम तो हंस की तरह जहाँ भी सद्गुण होते हैं वहाँ ग्रहण कर लेते हैं, पर आपने जो कहा वह उचित नहीं है। आप कहते हैं इसीलिए मैं कहता हूँ कि वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी आपकी दृष्टि से अनेक गप्पें हैं। उदाहरण स्वरूप एक गाय की पूंछ में तैन्तीस कोटि देवताओं का निवास मानते हैं, वह कैसे सम्भव हो सकता है। क्या आपने गाय की पूंछ में एकाध देवता भी कभी देखा है ? राजा मानसिंह - जैसे जैन शास्त्रों में असम्बद्ध बातें भरी पड़ी हैं, वैसे ही वैदिक परम्परा के शास्त्रों में भी हैं, मुझे दोनों ही बातें मान्य नहीं हैं। मैं तो राजा हूँ जो न्याय युक्त बात होती है उसे ही मैं स्वीकार करता हूँ, मिथ्या बातें नहीं मानता। आचार्यश्री - राजन् ! आपका चिन्तन अपूर्ण है। मैं सप्रमाण सिद्ध कर सकता हूँ कि जैन आगम साहित्य में एक बात भी ऐसी नहीं है जिसे गप कहा जाय । हम भी लकीर के फकीर नहीं हैं। भगवान महावीर ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा है – 'पन्ना समिक्खए धम्मतत्तं " बुद्धि की कसौटी पर कसकर देखें धर्म तत्व को । आपके अन्तर्मानस में जो यह शंका है कि जल की एक बूंद में असंख्यात जीव कैसे हो सकते हैं, मैं इसे सप्रमाण आपको आज से सांतवें दिन बताऊँगा । Jain Education International राजा मानसिंह नमस्कार कर लौट गये, किन्तु कहीं आचार्यश्री यहाँ से प्रस्थान न कर जायें अतः अपने एक सेवक को वहाँ पर नियुक्त कर दिया । उस समय आधुनिक विज्ञान इतना विकसित नहीं हुआ था और न ऐसे साधन ही थे जिससे सिद्ध किया जा सके। आचार्यश्री ने अपनी कमनीय कल्पना से चने की दाल जितनी जगह में एक कागज पर एक चित्र अंकित किया और वह चित्र जब सातवें दिन राजा मानसिंह उपस्थित हुआ तब उन्होंने वह उसे सामने रखते हुए कहा — जरा देखिए, इस चित्र में क्या अंकित है ? राजा मानसिंह ने गहराई से देखने का प्रयास किया किन्तु यह स्पष्ट नहीं हो रहा था कि उसमें क्या चीज है ? तब आचार्य प्रवर ने उस पन्ने पर लिखित दोहे पढ़े - वे दोहे इस प्रकार हैं पृथ्वी अप तेऊ पवन, पंचमी वणसई काय । तिल जितनी मांहि कह्या, जीव असंख्य जिनराय ॥ १ ॥ कर्म शरीर इन्द्रियप्रजा, प्राण जोग उपयोग । लेश्याविक ऋद्धिवन्त को, लूटें अन्धा लोग ॥ २ ॥ जीव सताओ जु जुवा, अनघड नर कहे एम। कृत्रिम वस्तु सूझे नहीं, जीव बताऊँ केम ॥ ३ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212266
Book TitleHamare Jyotirdhar Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size5 MB
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