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________________ O wwar n 306230 iva00000000000 4006- Pasc062 16900%20Rato200000 BRac 58६०४ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । Dao स्वास्थ्य रक्षा का आधार-सम्यग् आहार-विहार 260 -सुशीला देवी जैन हमारे शरीर का स्वस्थ रहना हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है। आयुर्वेद में प्रतिपादित स्वस्थ, निरोग या आरोग्य की उपर्युक्त यदि शरीर स्वस्थ नहीं है तो मनुष्य अपने कार्य कलापों को व्याख्या अत्यन्त व्यापक, सारगर्भित और महत्वपूर्ण है जो अपने समुचित रूप से सम्पन्न करने में समर्थ नहीं होता है। शरीर की आप में पूर्ण और सार्थक है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इस स्वस्थता का सम्बन्ध मन और उसकी स्वस्थता से भी है, अतः प्रकार का कोई दृष्टिकोण, विचार या सिद्धान्त नहीं है। आधुनिक शरीर की स्वस्थता और अस्वस्थता का पर्याप्त प्रभाव मन और चिकित्सा विज्ञान जो स्वयं को एकमात्र वैज्ञानिक होने का दावा मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। इस सम्बन्ध में आयुर्वेद के महर्षियों करता है में मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए केवल भोजन और ने बहुत ही तथ्य परक एवं महत्वपूर्ण बात कही है। उनके अनुसार उसके आवश्यक तत्वों के सन्तुलन पर ही बल दिया गया है, शरीर का डील-डौल अच्छा रहना या शरीर में कोई बीमारी उत्पन्न जिसके अनुसार प्रोटीन, विटामिन्स, कार्बोहाइड्रेट्स, वसा और नहीं होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु सम्पूर्ण शरीर की समस्त खनिजों को उपयुक्त अनुपात में सेवन करने से स्वास्थ्य की रक्षा हो क्रियाएं अविकृत रूप से सम्पन्न हों, मन में प्रसन्नता हो, इन्द्रियां । सकती है। निराबाध रूप से अपना कार्य करें, तब ही मनुष्य स्वस्थ कहा जा ____सामान्यतः हमारे द्वारा जो कुछ भी आहार ग्रहण किया जाता सकता है। आयुर्वेद के एक ग्रंथ 'अष्टांग हृदय' में आचार्य वाग्भट् । है उसका जठराग्नि के द्वारा पाचन होने के बाद जो आहार रस ने स्वस्थ पुरुष की परिभाषा निम्न प्रकार से बतलाई है बनता है वह सीधा दोषों को प्रभावित करता है। अतः मनुष्य के समदोषः समाग्निश्च सम धातुमलक्रियः। द्वारा जब ऐसे आहार विहार का सेवन किया जाता है जो हमारे प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः 'स्वस्थ' इत्यभिधीयते॥ शरीर के अनुकूल नहीं होता है तो उसके परिणाम स्वरूप शरीर में दोष वैषम्य (दोषों का क्षय या वृद्धि) उत्पन्न होता है जिससे धातुएँ अर्थात् जिस मनुष्य के शरीर में स्थित दोष (वात-पित्त-कफ) प्रभावित होती हैं, और धातु वैषम्य उत्पन्न हो जाता है। धातु वैषम्य सम (अविकृत) हों, जठराग्नि (पाचकाग्नि) सम (अविकृत) हो, के कारण शरीर में विकारोत्पत्ति होती है। हिताहार-विहार दोषों की धातुओं (रस-रक्त-मांस-मेद-अस्थि-मज्जा-शुक्र) और मलों (स्वेद-मूत्र समस्थिति बनाए रखने में सहायक होता है और स्वस्थ व्यक्ति के पुरीष) की क्रियाएं सम (अविकृत) हों, आत्मा, इन्द्रिय और मन लिए दोषों की साम्यावस्था अत्यन्त आवश्यक है। प्रसन्न हों वह स्वस्थ होता है। शरीर को स्वस्थ एवं निरोग रखने के लिए यह भी आवश्यक आयुर्वेद के अनुसार शरीर में वात-पित्त-कफ ये तीन दोष होते । है कि मनुष्य का आहार सम्यक् हो। हित-मित आहार का सेवन ह जा अपना सम अवस्था मशरार का धारण करतह-यहा शरार करने से शरीर में स्थित दोष-धातू-मल समावस्था में रहते हैं और की स्वस्थावस्था है। दोषों का क्षय या वृद्धि नहीं होना सम या । वे अपने अविकत (प्राकत) कार्यों के द्वारा शरीर का उपकार करते अविकृत अवस्था कहलाती है। किसी एक भी दोष का क्षय या वृद्धि हैं। मनुष्य इन्द्रियों के वशीभूत होकर अहित विषयों में प्रवृत्त न हो, होना विकृति कारक होता है। इस प्रकार विकृत या दूषित हुआ । विशेषतः रसना इन्द्रिय के वशीभूत होकर वह अभक्ष्य भक्षण एवं दोष उपर्युक्त धातु या धातुओं को विकृत (दूषित) करता है जिससे । अति भक्षण में प्रवृत्त न हो। मिथ्या आहार से अपने शरीर की रक्षा उन धातुओं में क्षय या वृद्धि रूप विकृति उत्पन्न होती है। इसका करते हुए मनुष्य को शुद्धता एवं सात्विकता पूर्वक अपना जीवन न्यूनाधिक प्रभाव अत्र को पचाने वाली जठराग्नि, इन्द्रिय, मन और निर्वाह करना चाहिये। आचरण की शुद्धता मानव जीवन के उत्कर्ष आत्मा पर भी पड़ता है। ये सब जब सम अवस्था में रहते हैं तो के लिए अत्यन्त आवश्यक है। अतः सात्विक वृत्ति पूर्वक उसे अविकृत रहते हुए शरीर को स्वस्थ रखते हैं। इनकी विषम स्थिति परिमित रूप में ही विषयों के सेवन में प्रवृत्ति रखना अभीष्ट है। विकृति की द्योतक होती है, अतः शरीर अस्वस्थ याने रोग ग्रस्त हो | जो मनुष्य अपने आचरण की शुद्धता और हिताहार के सेवन की जाता है। यह तथ्य निम्न आर्ष वचन से स्वतः स्पष्ट है-"रोगस्त । ओर विशेष ध्यान देता है वही व्यक्ति सुखी और निरोगी जीवन का दोषवैषम्यं दोषसाम्यमरोगता। अर्थात् दोषों की विषमता रोग और उपभोग करता है। दोषों की साम्यावस्था अरोगता की परिचायक है। इसी प्रकार एक । आहार-आहार प्रत्येक मनुष्य के लिए विशेष महत्व रखता है। अन्य आर्ष वचन के अनुसार "विकारो धातुवैषम्यं साम्यं एक ओर वह शरीर की स्वास्थ्य रक्षा, मानसिक स्वास्थ्य एवं प्रकृतिरुच्यते।" अर्थात् धातुओं की विषमता विकार और समता बौद्धिक सन्तुलन के लिए उत्तरदायी है तो दूसरी ओर अनेक प्रकृति कहलाती है। बीमारियों को उत्पन्न करने में भी कारण है। प्रत्येक मनुष्य के शरीर राज्यरजएण्यालय 000000000000000000000000 0000.04 a00000000000ODEODDSSC Bham-Educatiordinternationahe 060 ForpinagaFesbianseloniseDN0 00000080606365wwpidairolaganार ag a cRASRA9 %a600.00AMRPARIOR DO36000
SR No.212261
Book TitleSwasthya Raksha ka Adhar Samyag Ahar Vihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushila Jain
PublisherZ_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf
Publication Year
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Food
File Size3 MB
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