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________________ 330 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ........................................................................... है कि अन्तर्यात्रा के लिये यह सहज है। उसे प्रयास नहीं करना पड़ता। हमारे आत्मार्थी संतजन विपदाग्रस्त भक्त-जनों को देखकर मनोभावों से ही व्यथा भांप लेते हैं और कभी-कभी अपने विचारों से ही व्यथा का निराकरण कर देते हैं। यह इसी निर्मल चित्त अवस्था व शुभ भावना का ही परिणाम है। अन्त में यही कहा जा सकता है कि चेतना से मिलन की जो अन्तिम निष्पत्ति है, वह केवल अनुभूति जन्य है, शब्दातीत है व स्वयं-चेतना-निराकार व निरूपम है अतः इसे शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है और जब अन्तिम निष्पत्ति शब्दों में नहीं बाँधी जा सकती, तो उसके आधारभूत मार्ग ऋजुता की ओर सहज सतत व्यापक ध्यान और निर्मल चित्त अवस्था तथा उसके बाधक एवं साधक तत्त्वों को भी शब्दों में समावेश करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है और मैं नहीं जानता कि मैंने जो कुछ अपने शब्दों में व्यक्त किया है, उसमें मेरे विचार या भावों को कितनी अभिव्यक्ति मिल सकी है, पर इतना मैं अवश्य कह सकता हूँ कि मेरे शब्द, उस दिशा, मार्ग एवं मार्ग के अवरोधों की ओर, जो व्यक्ति की अपने से साक्षात् करने की यात्रा में सन्निहित है, किंचित् भी संकेत सूत्र बन पाए, तो मैं इसे विराट चेतना की कृपा का ही प्रसाद समझकर अपने को सौभाग्यशाली समझंगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.212255
Book TitleSwanubhuti ki aur Antaryatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanraj Kothari
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Inspiration
File Size421 KB
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