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जन-मंगल धर्म के चार चरण
हुआ प्रकाश सभी के लिए उपयोगी है, वैसे ही सदाचार के मूलभूत नियम सभी के लिए आवश्यक व उपयोगी हैं। कितने ही व्यक्ति अपने कुल परम्परा से प्राप्त आचार को अत्यधिक महत्त्व देते हैं और समझते हैं कि मैं जो कर रहा हूँ वही सदाचार है, पर जो सत् आचरण चाहे वह किसी भी स्रोत से व्यक्त हुआ हो, वह सभी के लिए उपयोगी है।.
सदाचार : दुराचार
सदाचार से व्यक्ति श्रेयस् की ओर अग्रसर होता है। सदाचार वह चुम्बक है, जिससे अन्यान्य सद्गुण स्वतः खिंचे चले आते हैं। दुराचार से व्यक्ति प्रेय की ओर अग्रसर होता है। दुराचार से व्यक्ति के सद्गुण उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे शीत-दाह से कोमल पौधे झुलस जाते हैं। सदाचारी व्यक्ति यदि दरिद्र भी है तो वह सबके लिए अनुकरणीय है, यदि वह दुर्बल है तो भी प्रशस्त है। क्योंकि यह स्वस्थ है। दुराचारी के पास विराट् सम्पत्ति भी है तो भी यह साररहित है।
शोध से शरीर में स्थूलता आ जाना शरीर की सुदृढ़ता नहीं कही जा सकती अपितु वह शोध की स्थूलता शारीरिक दुर्बलता का ही प्रतीक है। सदाचार और सद्गुणों का परस्पर अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। सद्गुणों से सदाचार प्रकट होता है और सदाचार से सद्गुण दृढ़ होते हैं। गगनचुम्बी पर्वतमालाओं से ही निर्झर प्रस्फुटित होते हैं और ये सरस सरिताओं के रूप में प्रवाहित होते हैं, वैसे ही उत्कृष्ट सदाचारी के जीवन से ही धर्मरूपी गंगा प्रगट होती है। सदाचार और सच्चरित्र
सदाचार और चरित्र ये दोनों एक ही सिक्के के दो हैं। पहलू एक ही धातु खण्ड के दो टुकड़े हैं, एक ही भाव के दो रूप हैं। आचार्य शंकर ने शील और सदाचार को अभेद माना है। सदाचार मानव-जीवन की श्रेष्ठ पूँजी है। अद्भुत आभा है। वह श्रेष्ठतम गंध है जो जन-जीवन को सुगन्ध प्रदान करती है। इसीलिए धम्मपद में शील को सर्वश्रेष्ठ गंध कहा है। रामचरित मानस में शील को पताका के समान कहा है। पताका सदा सर्वदा उच्चतम स्थान पर अवस्थित होकर फहराती है वैसे ही सदाचार भी पताका है, जो अपनी स्वच्छता, निर्मलता और पवित्रता के आधार पर फहराती रहती है।
चरित्र को अंग्रेजी में (Character) करेक्टर कहते हैं। मनुष्य का बर्ताव व्यवहार, रहन-सहन, जीवन के नैतिक मानदण्ड व आदर्श ये सब करेक्टर या चरित्र के अन्तर्गत आ जाते हैं। इन्हीं सबका संयुक्त रूप जो स्वयं व समाज के समक्ष व्यक्त होता है, वह आचार या सदाचार है। इसलिए सदाचार व सच्चरित्रता को हम अभिन्न भी कह सकते हैं तथा एक-दूसरे के सम्पूरक भी।
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आचार और नीति
आचार के अर्थ में ही पाश्चात्य मनीषियों ने 'नीति' शब्द का प्रयोग किया है। आचारशास्त्र को उन्होंने नीतिशास्त्र कहा है।
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नैतिकता के अभाव में मानव पशु से भी गया-गुजरा हो जाता है। मानव का क्या कर्त्तव्य है और क्या अकर्त्तव्य है इसका निर्णय नीति के आधार से किया जा सकता है। जो नियम नीतिशास्त्र को कसौटी पर खरे उतरते हैं, वे उपादेय हैं, ग्राह्य हैं और जो नियम नीतिशास्त्र की दृष्टि से अनुचित हैं वे अनुपादेय हैं और अग्राह्य है। मानव जिस समाज में जन्म लेता है उस समाज में जो नैतिक आधार और व्यवहार प्रचलित होता है वह उसे धरोहर के रूप में प्राप्त होता है। मानव में नैतिक आचरण की प्रवृत्ति आदिकाल से रही है। वे नैतिक नियम जो समाज में प्रचलित हैं उनके औचित्य और अनौचित्य पर चिन्तन कर जीवन के अन्तिम उच्च आदर्श पर नैतिक नियम आधृत होते हैं।
आचार
यद्यपि आचार या नीति शब्द के अर्थ कुछ भिन्न भी हैं, सम्पूर्ण जीवन के क्रिया-कलाप से सम्बन्ध रखता है, जबकि 'नीति' आचार के साथ विचार को भी ग्रहण कर लेती है। 'नीति' में सामयिक, देश-काल की अनुकूलता का विशेष ध्यान रखा जाता है। जबकि 'आचार' में कुछ शाश्वत व स्थायी सिद्धान्त कार्य करते हैं। नीति, व्यक्ति व समाज के सम्बन्धों पर जोर देती है, आचार व्यक्ति व ईश्वर सत्ता (आत्मा-परमात्मा के सम्बन्ध पर) के अधिक निकट रहता है। पश्चिमी विद्वान-देकार्ते (Descartes), लॉक (Locke) आदि के मतानुसार धर्म ही नीति का मूल है, जबकि कांट (Kant) के अनुसार नीति मनुष्य को धर्म की ओर ले जाती है। नीति का लक्ष्य 'चरित्र शुद्धि' है और चरित्र शुद्धि से ही धर्म की आराधना होती है। इस प्रकार 'नीति' और 'आचार' के लक्ष्य में प्रायः समानता है। भारतीय धर्म आचार को नीति से व नीति को आचार से नियंत्रित रखने पर बल देते हैं।
पश्चिम के प्रसिद्ध नीतिशास्त्री मैकेंजी (Mackenzie) का कहना है कि 'नीति' एक क्रिया है, धर्म मनुष्य का सत्संकल्प है, नीति उस संकल्प को क्रियान्वित करती है, इसलिए नीति को नियामक विज्ञान (Normative Science) कहा जाता है, और वह धर्म, सदाचार का ही अन्तिम अंग है।
आचार और विचार
आचार और विचार ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। विश्व में जितनी भी विचारधाराएँ प्रचलित हैं, उन्होंने आचार और विचार को महत्त्व दिया है। व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिये आचार और विचार दोनों का विकास अपेक्षित है। जब तक आचार के विकास के लिए पवित्र विचार नहीं होंगे, तब तक आचार सदाचार नहीं होगा। जिन विचारों के पीछे आचार का दिव्य आलोक नहीं है, वे विचार व्यक्तित्व-निर्माण में अक्षम हैं। जब आचार और विचार में एकरूपता होती है, वे परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं, तभी विकास के नित्य नूतन द्वार उद्घाटित होते हैं।