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________________ स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन ३१६ कारण तथागत की प्रज्ञापना होती थी वे रूप आदि तो प्रहीण हो गये, अब उनकी प्रज्ञापना का कोई साधन नहीं रहा, अतएव वे अव्याकृत हैं। इस प्रकार जैसे उपनिषदों में आत्मवाद की पराकाष्ठा के समय आत्मा या ब्रह्म को 'नेतिनेति' द्वारा अवक्तव्य प्रतिपादित किया, उसे सभी विशेषणों से परे बताया, ठीक उसी प्रकार बुद्ध ने भी आत्मा के विषय में उपनिषदों से सर्वथा विपरीत दृष्टि का अनुसरण कर उसे 'अव्याकृत' माना है। फिर भी जैसे उपनिषदों में परम तत्व को अवक्तव्य मानते हुए भी अनेक प्रकार से आत्मा का वर्णन किया गया है और वह व्यवहारिक माना गया है, वैसे ही बुद्ध ने भी कहा है कि लोकसंज्ञा, लोक-निरुक्ति, लोक-व्यवहार, लोक-प्रज्ञप्ति का आश्रय लेकर कहा जा सकता है कि 'मैं पहले था, नहीं था, ऐसा नहीं; मैं भविष्य में होऊँगा, नहीं होऊँगा, ऐसा नहीं; मैं अब हैं, नहीं हूँ, ऐसा नहीं।' ऐसी भाषा का प्रयोग करते हुए भी बुद्ध उसमें कहीं फंसते नहीं थे। तत्कालीन दार्शनिक-चिन्तन के क्षेत्र की स्थिति इस प्रकार की थी। भगवान महावीर ने तत्व के स्वरूप के विषय में उठने वाले नये-नये प्रश्नों का स्पष्टीकरण तत्कालीन अन्यान्य दार्शनिकों के विचारों के प्रकाश में किया। यही उनकी दार्शनिक क्षेत्र में नई देन है, जिसका संकेत आगमों में यत्र-तत्र-सर्वत्र देखने को मिलता है । अतएव आगमों के आधार पर अब उस नई देन के बारे में विचार करते हैं। आगमों के अनुसार भगवान महावीर को 'केवलज्ञान' होने के पूर्व जिन दस महास्वप्नों के दर्शन हुए थे, उनमें तीसरा स्वप्न 'चित्र-विचित्रपक्षयुक्त पुस्कोकिल' देखमा था। भगवतीसूत्र में इसका फल यह बतलाया गया है कि भगवान महावीर विचित्र ऐसे स्व-पर सिद्धान्त को बतलाने वाले द्वादशांग का उपदेश देंगे। यहां 'विचित्र' विशेषण से यह तात्पर्य लिया गया मालूम होता है कि उनका उपदेश अनेकरंगी-अनेकान्तवादात्मक होगा। भिक्ष के भाषाप्रयोग के प्रसंग में सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि उसे विभज्यवाद का उपयोग करना चाहिए। इस विभज्यवाद का ठीक से अर्थ समझने में जैन टीका ग्रंथों के अतिरिक्त बौद्धग्रंथ सहायक हो सकते हैं । बुद्ध ने अपने को विभज्यवादी बतलाया है, एकांशवादी नहीं, जो मज्झिमनिकाय (सुत्त ६६) में शुभमाणवक के प्रश्नों के उत्तरों से प्रगट होता है। उन उत्तरों में उन्होंने त्यागी या गृहस्थ की आराधकता और अनाराधकता में जो अपेक्षा या कारण था, उसे बताकर दोनों को आराधक या अनाराधक बताया है। अर्थात् प्रश्न का उत्तर विभाग करके दिया है। अतएव वे अपने को विभज्यवादी कहते हैं । परन्तु यहाँ यह विशेष ध्यान रखना चाहिये कि भगवान बुद्ध ने उन्हीं प्रश्नों का उत्तर विभज्यवाद के आधार पर दिया, जिनका उत्तर विभज्यवाद से ही संभव था। वे कुछ प्रश्नों का उत्तर देते समय ही विभज्यवाद का अवलंबन लेते थे, सभी प्रश्नों के उत्तरों में विभज्यवादी नहीं थे । भगवान बुद्ध के विभज्यवाद का क्षेत्र सीमित था और भगवान महावीर के विभज्यवाद का क्षेत्र व्यापक है। यही कारण है कि जैन-दर्शन आगे जाकर अनेकान्तवाद में परिणत हो गया और बौद्ध-दर्शन किसी अंश में विभज्यवादी होते हुए भी एकान्तवाद की ओर अग्रसर हुआ। मज्झिमनिकाय सुत्त ६६ से एकांशवाद और विभज्यवाद का परस्पर विरोध स्पष्ट सूचित हो जाता है और जैन टीकाकार विभज्यवाद का अर्थ स्याद्वाद अर्थात् अनेकान्तवाद करते हैं । ऐसी स्थिति में सूत्रकृतांगगत विभज्यवाद का अर्थ अनेकान्तवाद, नयवाद, अपेक्षावाद या विभाजन करके किसी तत्व के विवेचन का वाद लिया जाना ठीक है। अपेक्षाभेद से स्यात् शब्दांकित प्रयोग आगमों में देखे जाते हैं। एकाधिक भंगों का स्याद्वाद भी आगमों में मिलता है। अतः आगमकालीन अनेकान्तवाद या विभज्यवाद को स्याद्वाद कहा जाना उचित है। SAMBAJAJALRAanasaIRANJANAGAURAHAvasarawaiiaawazASALANDANAamraemarwAAAAAAAILAama m WWorimrrnManornv Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212243
Book TitleSyadwad Siddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherZ_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf
Publication Year1975
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size3 MB
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