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________________ MARJARALAWAAAAAAAASANAMAAJM awaiinsaanJALASAINSamacARDASJADAKAMALAMERICADAAAMADAMADRASAACASH Mix Futuisg3.315 आचार्यप्रअभि श्रीआनन्दकन्थ2श्राआनन्दा ३१८ धर्म और दर्शन और महाभूतों में ही लय मानने वाले भी थे । इसकी चर्चा भी उपनिषदों में देखने को मिलती है । यह भूतवाद तत्कालीन आत्मवाद के प्रचार को प्रभावहीन करने में समर्थ नहीं हआ और स्वयमेव निष्क्रिय होकर हतप्रभ-सा हो गया। परन्तु भगवान् बुद्ध ने इस उपनिषद्-कालीन आत्मवाद के प्रभाव को अपने अनात्मवाद के उपदेश द्वारा मंद किया। जितने वेग से आत्मवाद का प्रचार हुआ, उतने ही वेग से भगवान् बुद्ध ने इसको निरस्त करने का प्रयत्न किया। भगवान् बुद्ध विभज्यवादी थे। अतः उन्होंने रूप आदि ज्ञात वस्तुओं तथा वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान आदि को अपने तर्कों द्वारा एक-एक करके अनात्म सिद्ध किया । भगवान् बुद्ध के अनात्मवाद का यह तात्पर्य है कि उन्हें शरीरात्मवाद ही नहीं, किन्तु सर्वव्यापी, शाश्वत् आत्मवाद भी अमान्य था। उनके मत में न तो आत्मा शरीर से अत्यन्त भिन्न ही है और न आत्मा शरीर से अभिन्न ही है । उन्हें चार्वाक-सम्मत भौतिकवाद और उपनिषदों का कूटस्थ आत्मवाद भी एकान्त प्रतीत होता था । शाश्वत, कूटस्थ आत्मा मरकर पुनः जन्म लेती है और संसरण करती है, ऐसा मानने से शाश्वतवाद होता है। यदि ऐसा माना जाये कि माता-पिता के संयोग से महाभूतों से आत्मा उत्पन्न होती है और इसीलिये शरीर नष्ट होने पर आत्मा भी उच्छिन्न, विनष्ट और लुप्त हो जाती है तो यह उच्छेदवाद होता है । अतएव बुद्ध ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनों को छोड़कर मध्यममार्ग-अशाश्वतानुच्छेदवाद, प्रतीत्यसमुत्पादवाद का उपदेश दिया। जैसे क्या दुःख स्वकृत है, परकृत है, स्वपरकृत है या अस्वपरकृत है ? इन प्रश्नों के उत्तर भगवान् बुद्ध ने 'नहीं' में दिये और इसका कारण स्पष्ट करते हुए कहा कि दुःख स्वकृत है, ऐसा कहने का अर्थ होता है कि जिसने किया वह भोग करता है, यह शाश्वतवाद का अवलंबन हुआ । यदि परकृत कहें तो ऐसा कहने का मतलब होता है कि किया किसी दूसरे ने और भोग करता है कोई अन्य । ऐसी स्थिति में उच्छेदवाद आ जाता है। अतएव शाश्वतवाद और उच्छेदवाद इन दोनों अंतों को छोड़कर मध्यममार्ग को ग्रहण करना योग्य है। इसका तात्पर्य यह है कि संसार में सुख-दुःख, जन्म-मरण, बंध-मुक्ति आदि सब होते हुए भी इनका कोई स्थिर आधार आत्मा हो ऐसा नहीं है, परन्तु ये अवस्थायें पूर्व-पूर्व कारण से उत्तर-उत्तर काल में होती हैं और नये कार्य को उत्पन्न कर नष्ट हो जाती हैं। इस प्रकार संसारचक्र चलता रहता है। पूर्व का सर्वथा उच्छेद भी इष्ट नहीं और ध्रौव्य भी इष्ट नहीं । उत्तर पूर्व से सर्वथा असंबद्ध हो, यह बात भी नहीं किन्तु पूर्व के अस्तित्व के कारण उत्तर होता है, पूर्व की शक्ति उत्तर में आ जाती है। उत्तर पूर्व से सर्वथा भिन्न भी नहीं और अभिन्न भी नहीं किन्तु अव्याकृत है, क्योंकि भिन्न कहने पर उच्छेदवाद होता है और अभिन्त कहने पर शाश्वतवाद होता है । बुद्ध को ये दोनों वाद मान्य न थे । अतएव उन्होंने ऐसे प्रश्नों को अव्याकृत कहकर उत्तर दिया। इस संसारचक्र के नाश का क्या उपाय है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान बुद्ध ने बताया-पूर्व का निरोध करना । कारण के नाश होने पर कार्य उत्पन्न नहीं होगा । जैसे अविद्या का निरोध होने पर संस्कार का निरोध, संस्कार का निरोध होने से विज्ञान का निरोध और इस प्रकार एक से दूसरे का क्रमशः निरोध होकर अंत में जन्म के निरोध होने पर मरण का निरोध हो जाता है। __इस स्थिति में मरणान्तर तथागत बुद्ध का क्या होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भी भगवान् बुद्ध ने 'अव्याकृत है' ऐसा कहा है। वह इसलिये कि मरणोत्तर तथागत होता है तो शाश्वतवाद का और नहीं होता है तो उच्छेदवाद का प्रसंग आता है। अतएव दोनों वादों का निषेध करने के लिये भगवान बुद्ध ने तथागत की मरणोत्तर दशा को 'अव्याकृत' कहा । जिस रूप, वेदना आदि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212243
Book TitleSyadwad Siddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherZ_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf
Publication Year1975
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size3 MB
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