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________________ स्याद्वाद पर कुछ आक्षेप और उनका परिहार होने पर चौथा भङ्ग बनता है। इसी प्रकार विधि की और युगपद् विधि और निषेध की विवक्षा होने पर पांचवां भङ्ग बनता है। आगे के भङ्गों का भी यही क्रम है। यह ठीक है कि जैन श्राचार्यों ने सात भङ्गों पर ही जोर दिया और सात भङ्ग ही क्यों होते हैं, कम या अधिक क्यों नहीं होते, इसे सिद्ध करने के लिए अनेक हेतु भी दिए, किन्तु जैन दर्शन की मौलिक समस्या सात की नहीं, दो की है। बौद्ध दर्शन और वेदान्त में जिन चार को टियों पर भार दिया जाता है वे भी सप्तभङ्गी की तरह ही हैं। उनमें भी मूलरूप में दो ही कोटियां हैं। तीसरी और चौथी कोटि में मौलिकता नहीं है। कोई यह कह सकता है कि दो भङ्गों को भी मुख्य क्यों माना जाय, एक ही भङ्ग मुख्य है। यह ठीक नहीं। वस्तु न तो सर्वथा सत् या विध्यात्मक हो सकती है और न सर्वथा असत् या निषेधात्मक । विधि और निषेध दोनों रूपों में वस्तु की पूर्णता रही हुई है। न तो विधि निषेध से बलवान् है और न निषेध विधि से शक्तिशाली है। दोनो समानरूप से वस्तु की यथार्थता के प्रति कारण हैं। वस्तु का पूर्णरूप देखने के लिए दोनों पक्षों की सत्ता मानना आवश्यक है। इसलिए पहले के दो भङ्ग मुख्य हैं। हां, यदि कोई ऐसा कथन हो जिसमें विधि और निषेध का समानरूप से प्रतिनिधित्व हो-दोनों में से किसी का भी निषेध न हो तो उसको मुख्य मानने में जैन दर्शन को कोई एतराज नहीं। वस्तु का विश्लेषण करने पर प्रथम दो मङ्ग अवश्य स्वीकृत करने पड़ते हैं। १०. स्याद्वाद को मानने वाले केवलज्ञान की सत्ता में विश्वास नहीं रख सकते क्योंकि केवलशान एकान्तरूप से पूर्ण होता है। उसकी उत्पत्ति के लिए बाद में किसी की अपेक्षा नहीं रहती। स्याद्वाद और केवलज्ञान में तत्त्वज्ञान की दृष्टि से कोई भेद नहीं है। केवली वस्तु को जिस रूप से जानेगा, स्याद्वादी भी उसे उसी रूप से जानेगा । अन्तर यह है कि केवली जिस तत्त्व को साक्षात् जानेगाप्रत्यक्ष ज्ञान से जानेगा, स्याद्वादी छमस्थ उसे परोक्षरूप से जानेगा-श्रुतज्ञान के आधार से जानेगा। केवलज्ञान पूर्ण होता है इसका अर्थ यही है कि वह साक्षात् आत्मा से होता है और उस ज्ञान में किसी प्रकार की बाधा की सम्भावना नहीं है। पूर्णता का यह अर्थ नहीं कि वह एकान्तवादी हो गया। तत्त्व को तो वह सापेक्ष-अनेकान्तात्मक रूप में ही देखेगा। इतना ही नहीं, उसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों धर्म रहते हैं। काल जैसे किसी भी पदार्थ में परिवर्तन करता है, वैसे ही केवलज्ञान में भी परिवर्तन करता है। जैन दर्शन केवलज्ञान को कूटस्थ नित्य नहीं मानता। किसी वस्तु की भूत, वर्तमान और अनागत-ये तीन अवस्थाएँ होती हैं। जो अवस्था अाज अनागत है वह कल वर्तमान होती है। जो आज वर्तमान है वह कल भूत में परिणत होती है। केवलज्ञान आज की तीन प्रकार की अवस्थाओं को आज की दृष्टि से जानता है। कल का जानना अाज से भिन्न हो जाएगा क्यों कि आज जो वर्तमान है वह भूत होगा और श्राज जो अनागत है कल वह वर्तमान होगा। यह ठीक है कि केवली तीनों कालों को जानता है किन्तु जिस पर्याय को उसने कल भविष्यत् रूप से जाना था उसे अाज वर्तमान रूप से जान सकता है। इस प्रकार कालभेद से केवली के ज्ञान में भी भेद अाता रहता है। वस्तु की अवस्था के परिवर्तन के साथ साथ ज्ञान की अवस्था भी बदलती रहती है। इसलिए केवलज्ञान भी कथञ्चित् अनित्य है और कथञ्चित् नित्य। स्याद्वाद और केवलज्ञान में विरोध की कोई सम्भावना नहीं। - भगवान् महावीर ने केवलज्ञान होने के पहले चित्रविचित्र पंख वाले एक बड़े पुंस्कोकिल को स्वप्न में देखा। इस स्वप्न का विश्लेषण करने पर स्यावाद फलित हुआ। पुस्कोकिल के चित्रविचित्र पंख अनेकान्तवाद के प्रतीक हैं। जिस प्रकार जैन दर्शन में वस्तु की अनेकरूपता की स्थापना स्याद्वाद के आधार पर की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212239
Book TitleSyadvada par Kuch Akshep aur unka Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherZ_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf
Publication Year1956
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size517 KB
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