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आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ
भेद मानना भी
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विभिन्न वस्तु
पदार्थों या धर्मों में एकता है, इसे स्याद्वाद मानता है । भिन्न भिन्न वस्तुत्रों में स्याद्वाद को अभीष्ट है । स्याद्वाद यह नहीं कहता कि अनेक धर्मों में कता नहीं है को एक सूत्र में बांधने वाला अभेदात्मक तत्त्व अवश्य है, किन्तु ऐसे तत्त्व को मानने का यह अर्थ नहीं कि स्याद्वाद एकान्तवाद हो गया । स्याद्वाद एकान्तवाद तब होता जब वह भेद का खण्डन करताअनेकता का तिरस्कार करता । अनेकता में एकता मानना स्याद्वाद को प्रिय है, किन्तु अनेकता का निषेध करके एकता को स्वीकृत करना उसकी मर्यादा के बाहर है। 'सर्वमेकं सदविशेषात् ' अर्थात् सत्र एक है क्योंकि सब सत् है - इस सिद्धान्त को मानने के लिए स्याद्वाद तैयार है किन्तु अनेकता का निषेध करके नहीं, अपितु उसे स्वीकृत करके । एकान्तवाद अनेकता का निषेध करता है - अनेकता को यथार्थ मानता है-भेद को मिथ्या कहता है जब कि अनेकान्तवाद एकता के साथ साथ अनेकता को भी यथार्थ मानता है । एकतामूलक यह तत्व एकान्तरूप से निरपेक्ष है, यह नहीं कहा जा सकता। एकता अनेकता के बिना नहीं रह सकती और अनेकता एकता के अभाव में नहीं रह सकती । एकता और अनेकता परस्पर इसी प्रकार मिली हुई हैं कि एक को दूसरी से अलग नहीं किया जा सकता। ऐसी दशा में एकता को सर्वथा निरपेक्ष कहना युक्तियुक्त नहीं । एकता अनेकताश्रित है और अनेकता एकताश्रित है। दोनों एक दूसरे की अपेक्षा रखती हैं। एकता के बिना अनेकता का काम नहीं चल सकता और अनेकता के बिना एकता कुछ नहीं कर सकती । तत्त्व एकता नेता दोनों का मिलाजुला रूप है। उसे न तो एकान्तरूप से एक कह सकते हैं और न एकान्ततः अनेक | इसलिए स्याद्वाद को एकता के वास्तविक मानने पर भी एकान्तवाद या निरपेक्षवाद का भय नहीं ।
८. यदि प्रत्येक वस्तु कथञ्चित् यथार्थ है और कथञ्चित् अयथार्थ, तो स्याद्वाद स्वयं भी कथञ्चित् सत्य होगा और कथञ्चित् मिथ्या । ऐसी स्थिति में स्याद्वाद से ही तत्त्व का यथार्थ ज्ञान हो सकता है, यह कैसे कहा जा सकता है ?
स्याद्वाद तत्त्व का विश्लेषण करने की एक दृष्टि है । अनेकान्तात्मक तत्त्व को अनेकान्तात्मक दृष्टि से देखने का नाम ही स्याद्वाद है । जो वस्तु जिस रूप से यथार्थ है उसे उसी रूप में यथार्थ मानना और तदितर रूप में यथार्थ मानना स्याद्वाद है । स्याद्वाद स्वयं भी यदि किसी रूप में अयथार्थ या मिथ्या तो वैसा मानने में कोई हर्ज नहीं । यदि हम एकान्तवादी दृष्टिकोण लें और उससे स्याद्वाद की ओर देखें तो वह भी मिथ्या प्रतीत होगा । अनेकान्त दृष्टि से देखने पर स्याद्वाद सत्य प्रतीत होगा । दोनो दृष्टियों को सामने रखते हुए हम यह कह सकते हैं कि स्याद्वाद कथञ्चित् मिथ्या है अर्थात् एकान्तदृष्टि की अपेक्षा से मिथ्या है और कथञ्चित् सत्य है अर्थात् अनेकान्तदृष्टि की अपेक्षा से सत्य है । जिसका जिस दृष्टि से जैसा प्रतिपादन हो सकता है उसका उस दृष्टि से वैसा प्रतिपादन करने के लिये स्याद्वाद तैयार है । इस में उसका कुछ नहीं बिगड़ता । जब हम यह कहते हैं कि प्रत्येक पदार्थ स्वरूप से सत् है और पररूप से असत् है तो हम यह भी कह सकते हैं कि स्याद्वाद स्वरूप से अर्थात् अनेकान्तरूप से सत् है - यथार्थ है और पररूप से अर्थात् एकान्तरूप से असत् है - यथार्थ है । हमारा यह कथन भी स्याद्वाद ही है । दूसरे शब्दों में स्याद्वाद को कथञ्चित् यथार्थ और कथञ्चित् यथार्थ कहना भी स्याद्वाद ही है ।
६. सप्तभङ्गी के अन्त के तीन भङ्ग व्यर्थ हैं क्योंकि वे केवल दो भङ्गों के योग से बनते हैं। इस प्रकार योग से ही संख्या बढ़ाना हो तो सात क्या अनन्त भङ्ग बन सकते हैं।
मूलतः एक धर्म को लेकर दो पक्ष बनते हैं -- विधि और निषेध । प्रत्येक धर्म का या तो विधान होगा या प्रतिषेध । ये दोनों भङ्ग मुख्य हैं। बाकी के भङ्ग विवक्षाभेद से बनते हैं। तीसरा और चौथा दोनों भङ्ग भी स्वतंत्र नहीं हैं। विधि और निषेध की क्रम से विवक्षा होने पर तीसरा भङ्ग बनता है और युगपद् विवक्षा
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