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________________ स्याद्वाद पर कुछ आक्षेप और उनका परिहार श्री मोहनलाल मेहता, एम. ए., शास्त्राचार्य स्याद्वाद के वास्तविक अर्थ की उपेक्षा कर बड़े बड़े दार्शनिक भी उस पर मिथ्या आरोप लगाने से नहीं चूके। उन्होंने अज्ञानवश ऐसा किया या जानकर, यह कहना कठिन है। कैसे भी किया हो, किन्तु किया अवश्य । बौद्ध विद्वान् धर्मकीर्ति ने स्यावाद को पागलों का प्रलाप कहा और जैनों को निर्लज्ज बताया। शान्तरक्षित ने भी यही बात कही। स्याद्वाद जो कि सत् और असत्, एक और अनेक, भेद और अभेद, सामान्य और विशेष जैसे परस्पर विरोधी तत्त्वों को मिलाता है, पागल व्यक्ति की बौखलाहट है। इसी प्रकार शंकराचार्य ने भी स्याद्वाद पर पागलपन का आरोप लगाया। एक ही श्वास उष्ण और शीत नहीं हो सकता। भेद और अभेद, नित्यता और अनित्यता, यथार्थता और अयथार्थता, सत् और असत् अन्धकार और प्रकाश की तरह एक ही काल में एक ही वस्तु में नहीं रह सकते। इस प्रकार के अनेक आरोप स्याद्वाद पर लगाए गए हैं। अब तक जितने आरोप लगाये गए हैं अथवा लगाए जा सकते हैं, इस लेख में उन सब का एक एक करके निराकरण करने का प्रयत्न किया जाएगा। १. विधि और निषेध परस्पर विरोधी धर्म हैं। जिस प्रकार एक ही वस्तु नील और अनील दोनों नहीं हो सकती क्योंकि नीलत्व और अनीलत्व विरोधी वर्ण हैं, उसी प्रकार विधि और निषेध परस्पर विरोधी होने के कारण एक ही वस्तु में नहीं रह सकते । इसलिए यह कहना विरोधात्मक है कि एक ही वस्तु भिन्न भी है और अभिन्न भी है, सत् भी है और असत् भी है, वाच्य भी है और अवाच्य भी है। जो भिन्न है वह अभिन्न कैसे हो सकती है और जो अभिन्न है वह भिन्न कैसे हो सकती है? जो एक है वह एक ही है, जो अनेक है वह अनेक ही है। इसी प्रकार अन्य धर्म भी पारस्परिक विरोध सहन नहीं कर सकते । स्याद्वाद इस प्रकार के विरोधीधर्म का एकत्र समर्थन करता है, इसलिए वह सदोष है। यह दोषारोपण मिथ्या है। प्रत्येक पदार्थ अनुभव के आधार पर इसी प्रकार का सिद्ध होता है। एक दृष्टि से बह नित्य प्रतीत होता है और दूसरी दृष्टि से अनित्य। एक दृष्टि से एक मालूम होता है और दूसरी दृष्टि से अनेक । स्याद्वाद यह नहीं कहता कि जो नित्यता है वही अनित्यता है, या जो एकता है वही अनेकता है। नित्यता और अनित्यता, एकता और अनेकता अादि धर्म परस्परविरोधी हैं, यह सत्य है। किन्तु उनका विरोध अपनी दृष्टि से है, वस्तु की दृष्टि से नहीं। वस्तु तो दोनों को ही श्राश्रय देती है। दोनों की सत्ता से ही वस्तु का स्वरूप पूर्ण होता है। एक के भी अभाव में पदार्थ अधूरा है। जब एक वस्तु द्रव्य दृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से अनित्य मालूम होती है तो उसमें विरोध का कोई प्रश्न ही नहीं है। विरोध वहां होता है जहां विरोध की प्रतीति हो। विरोध की प्रतीति के अभाव में भी विरोध की कल्पना करना सत्य को चुनौती देना है। जैन ही नहीं, बौद्ध भी चित्रज्ञान में विरोध नहीं मानते। जब एक ही ज्ञान में चित्रवर्ण का प्रतिभास हो सकता है और उस ज्ञान में विरोध नहीं होता तो एक ही पदार्थ में दो विरोधी धर्मों की सत्ता १. प्रमाणवार्तिक १, १८२-१८५. २. तत्त्वसंग्रह ३११-३२७. ३. शारीरकभाष्य २.२.३३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212239
Book TitleSyadvada par Kuch Akshep aur unka Parihar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherZ_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf
Publication Year1956
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size517 KB
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