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________________ ४६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य जैन संस्कृतिमें स्याद्वादका व्यावहारिक उपयोग उसकी सफलता __ समय-समयपर जै.. संस्कृतिमें बहुतसे परिवर्तन हुए होंगे। परन्तु भगवान् महावोरसे लेकर आज तक जितने परिवर्तन हुए वे ऐतिहासिक कहे जा सकते हैं । जैनियोंके वाद्याचार पर भगवान महावीरके बादसे विक्रमकी १५वीं, १६वीं शताब्दी तक उत्तरोत्तर अधिक प्रभाव पड़ता गया। इसका कारण यह है कि यद्यपि भगवान महावीर और महात्मा बुद्धने वैदिक क्रियाकाण्डका अन्त कर दिया गया था, पर इस तरहकी भावनाएँ कुछ लोगोंके हृदयमे बनी रही थीं, जिनके आधारपर ब्राह्मण संस्कृतिका उत्थान हुआ। इधर जैनधर्म और बौद्धधर्मकी बागडोरें ढीली पड़ी, जिससे ब्राह्मण संस्कृतिको बढ़नेका अच्छा मौका मिला और उसका धीरे-धीरे व्यापक रूप बन गया। यही कारण है कि जैनधर्म उससे अछूता न रह सका। मेरा तो विश्वास है और सिद्ध भी किया जा सकता है कि बौद्धधर्मके तत्कालीन महापुरुषोंने बौद्धधर्मके बाह्यरूपमें रंचमात्र परिवर्तन नहीं किया, इसीसे वह भारतसे लुप्त हो गया । किन्तु जैनी स्याद्वादके महत्त्वको समझते थे. उनको देश-कालकी परिस्थितिका अच्छा अनुभव था, इसलिए उन्होंने समयानुसार जैनधर्मकी सत्ता कायम रखनेके लिये ब्राह्मण संस्कृतिको अपनाया। उस समय ब्राह्मण संस्कृतिका इतना अधिक प्रभाव था कि सभी लोगोंका झुकाव उस तरफ हो गया था । इसलिये जैनाचार्यों को लिखना पता कि "जिस लोकाचारसे सम्यक्त्वकी हानि या व्रत दूषित नहीं होते हैं वह लोकाचार जैनधर्म बाह्य नहीं कहा जा सकता।" इस प्रकार उस समय जो जैनधर्मसे विमुख हो रहे थे उनकी स्थिरता करते हए जैनाचार्योंने जैनधर्मकी सत्ता कायम रखी थी जिसका फल यह है कि आज भी भारतवर्ष में जैनी लोग विद्यमान हैं, अन्यथा बौद्धोंकी तरह जैनी भी आज दूसरे धर्मका बखतर पहिने दिखाई देते। आधुनिक भूलें ऊपरके कथनसे स्पष्ट हो जाता है कि पूर्व पुरुषोंने वस्तुव्यवस्थामें अपना सिद्धान्त व अपना आचार ध्यवहार स्याद्वादकी सहायतासे निश्चित किया था। तात्पर्य यह कि किसी भी सिद्धान्तका साधक तर्क है-स्याद्वाद सहायक और विश्वास उसका आधार है । इन तीनोंका आश्रय लेकरके जिन लोगोंने वस्तुव्यवस्थाके सिद्धान्त स्थिर किये थे या जो आज करते हैं उनका ऐसा करना असंगत नहीं कहा जायगा । बल्कि जिसका हृदय तर्क, स्याद्वाद और विश्वाससे व्याप्त होगा उसके द्वारा की गई वस्तुव्यवस्था आदरणीय समझी जायगी। जैन सिद्धान्तकी सत्यता या उपादेयता इसलिये नहीं है कि वह सर्वज्ञभाषित है, किन्तु इसलिये है कि उसका मूल तर्क, स्याद्वाद और विश्वास है। सर्वज्ञ तो सिद्धान्तकी अविरोधतासे सिद्ध किया जाता है । हेतुका साध्य उसी हेतुका हेतु नहीं माना जाता । इसलिये जो लोग पूर्व पुरुषोंके किसी भी सिद्धान्तको तर्क, स्याद्वाद और विश्वासके बिना मिथ्या सिद्ध करनेकी कोशिश करते हैं वे स्वयं भूल करते है और जो किसी सिद्धान्तकी तर्क, स्याद्वाद और विश्वासके अधार पर परीक्षा करना पाप समझते हैं वे भी भूल करते हैं । दोनों ही स्याद्वाद के रहस्यसे अनभिज्ञ हैं । इसी प्रकार जो आचरण या व्यवहार आज संक्लेश-वर्धक, लोकानुपयोगी, लोकनिन्दनीय हों वे भले ही किसी समय शान्तिवर्धक, लोकोपयोगी व लोकप्रशंसित रहे हों, आज उनको मिथ्या या अनुपादेय समझा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212238
Book TitleSyadwad Darshan aur uske upyogka Abhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherZ_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
Publication Year1989
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size472 KB
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