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________________ सौभाग्यमल जैन : स्याद्वाद और अहिंसा : ३२७ -0-0-0-0-0-0-0--0-0-0 नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तत्त्ववादे न च तर्कवादे, न पक्षसेवाऽऽश्रयणेन मुक्तिः कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव । उक्त आचार्य ने केवल कषाय से मुक्तता को ही मोक्ष का कारण प्रतिपादन किया है. यदि हम जैनेतर दृष्टिकोण पर विचार करें तो वहाँ पर भी ऐसे सूत्र-वाक्य मिल जाते हैं जिनमें स्याद्वाद अथवा अनेकान्तविचार पद्धति का प्राधान्य है. उदाहरण के लिए "एक सद्विप्रा बहुधा वदंति" एक ही सत्य को विप्रगण अनेक प्रकार से प्रतिपादन करते हैं. वास्तव में विश्व ही भिन्नता का समूह है. उसमें किसी के दुराग्रह के लिए. कोई स्थान नहीं है. हों भिन्न सब भिन्नत्व तो संसार का है नियम ही, पर भिन्न होना नहिं किसी से बुद्धिमत्ता है यही । जैनाचार्यों ने इस सिद्धान्त का जनसाधारण को सरलता से बोध कराने के लिए कई उदाहरण अपने साहित्य में प्रस्तुत किये हैं. स्याद्वाद के सम्बन्ध में कुछ अजैन विद्वानों ने भ्रांति उत्पन्न करने का प्रयत्न किया है. कुछ विद्वान् इसे संशयवाद (ढिलमिल यकीनी) बताते हैं. यह भी कहा जाता है कि इसमें जब मनुष्य अपने से भिन्न दृष्टि को सत्य होने का विचार करता है तब वह अपने द्वारा अपनाये हुए दृष्टिकोण को असत्य मानता है. इसी प्रकार किसी समय एक दृष्टिकोण को सत्य मानता है किसी समय अन्य को. यही ढिलमिल यकीनी तथा संशयवाद कहा जाता है. किन्तु जैनाचार्यों ने दधिमंथन का उदाहरण देकर इसका निराकरण किया है. युरोपीय विद्वानों ने “सापेक्षवाद" (Prnciple of relativity) का आविष्कार करके उक्त सिद्धान्त की उपयोगिता मानी है. एक विद्वान् का कहना है कि यह सिद्धांत अत्यन्त सरल तथा तर्कपूर्ण है. यदि एक लकीर स्लेट पर खींच कर परीक्षा की जाये कि यह बड़ी है या छोटी ? तो निश्चित रूपसे उसके दोनों उत्तर होंगे. अन्य लकीर (जो उससे छोटी हो) खींचकर उसे बड़ी कहा जा सकता है और अन्य (जो उससे बड़ी हो) खींचकर उसे छोटी कहा जा सकता है. यही तो सापेक्षवाद है. स्याद्वाद सिद्धांत की पृष्ठभूमि में जो भावना काम करती है वही भावना प्रजातंत्रीय पद्धति में कार्य करती है. लोकतंत्रात्मक राज्य में पालियामेंट में "विरोधी दल" का बड़ा महत्त्व है. उसमें भी यही भावना काम करती है. "सत्तारूढ दल" अपनाई गई नीति में आलोचना की गुंजायश स्वीकार करता है. सत्तारूढ दल अपने द्वारा अपनाई नीति तथा कार्यक्रम में विश्वास रखते हुए भी इस बात की गुंजायश स्वीकार करता है कि अन्य नीति तथा कार्यक्रम देश हित के लिए अपनाया जाना उचित हो सकता है. उक्त आलोचना को सुनकर वह लाभ उठाता है. हम इसे 'राजनीतिक स्याद्वाद' के नाम से अभिहित कर सकते हैं. जैसा कि ऊपर व्यक्त किया गया है स्याद्वाद एक अंग है अहिंसा का. स्याद्वाद वास्तव में बौद्धिक अहिंसा ही है. ऊपर यह भी बतलाया जा चुका है कि जैनदर्शन में "अहिंसा" सर्वोपरि है. यदि यह कहा जाए कि "अहिंसा" जैनदर्शन का पर्यायवाची नाम है तो भी अत्युक्ति न होगी. भगवान् महवीर ने स्पष्ट कहा था कि जो तीर्थकर पूर्व में हुए, वर्तमान में हैं, तथा भविष्य में होंगे, उन सबने अहिंसा का प्रतिपादन किया है. अहिंसा ही ध्रुव तथा शाश्वत धर्म है. इस प्रकार जनदर्शन में अहिंसा का स्थान सर्वोपरि पाया जाता है. जैनदर्शन द्वारा प्रतिपादित "अहिंसा" के सम्बन्ध में देश में काफी भ्रम रहा. किसी ने उसे अव्यवहार्य बताया, किसी ने उसे वैयक्तिक बताकर सामाजिक, राजकीय प्रश्नों के लिए अनुपयोगी बताया. इस प्रकार का भ्रम उत्पन्न करने वालों ने जनदर्शन द्वारा प्रतिपादित “अहिंसा" का पूर्ण अध्ययन किये विना ही उसकी आलोचना की है. जो जैनदर्शन मनुष्य अथवा प्राणधारी के जीवन की प्रत्येक क्रिया में हिंसा का आभास पाता है और कहता है कि विश्व में किसी भी प्राणधारी की, पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति तथा त्रस जीवों की हिंसा से विरत रहना चाहिए, उसी जैनदर्शन के व्याख्याता आचार्यों ये यह भी प्रतिपादित किया कि "जयं चरे, जयं चिट्ठ, जयंमासे, जयं सये, जयं भुजतो, भासंतो, पावकम्मं न बंधई। Jain Elation in Private & Personal new.jainelibory.org
SR No.212234
Book TitleSyadwad aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ahimsa
File Size532 KB
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