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तीन व्यक्ति एक स्थान पर खड़े हैं। किसी आगन्तुक ने पूछा- क्या आप इनके पिता हैं ?' उसने उत्तर दिया- 'हाँ (स्वादस्मि) अपने इस पुत्र की अपेक्षा से मैं पिता हूं। किन्तु इन पिताजी की अपेक्षा से मैं पिता नहीं हूं (स्यान्नास्मि) । मैं पिता हूं भी, नहीं भी हूं (स्यादस्मि नारिम), किन्तु एक साथ दोनों बातें नहीं कही जा सकती (स्वादवक्तव्य ) इसलिए क्या कहूं ?"
स्याद्वाद का एक शास्त्रीय उदाहरण है—घट, जिसका स्वरूप-नियमन जैन दार्शनिक सप्तभंगी के माध्यम से इस प्रकार करते हैंस्याद् अस्ति एव घट: कथंचिद् घट है ही । स्वा नास्ति एवं पटक
घट नहीं ही है।
स्वाद् अस्ति एवं घटः स्याद् नास्ति एव पटः कथंचिपट है ही और कपट नहीं ही है। स्यादवक्तव्य एव घटः कथंचिद् घट अवक्तव्य ही है।
स्याद् अस्ति एव घटः स्यादवक्तव्य एव घटः--कथंचिद् घट है ही और कथंचिद् घट अवक्तव्य ही है। स्यान्नास्ति एव घट : स्यादवक्तव्य एव घटः- -कथंचिद् घट नहीं ही है और कथंचिद् घट अवक्तव्य ही है ।
स्याद् 'अस्ति एव घटः स्यान्नास्ति एव घटः स्यादवक्तव्य एव घटः - - कथंचिद् घट है ही, कथंचिद् घट नहीं ही है और कथंचिद् घट
अवक्तव्य ही है ।
'स्याद् अस्ति एव घट: ' - कथंचिद् घट है ही । इस वाक्य में 'घट' विशेष्य और 'अस्ति' विशेषण है। 'एवकार' विशेषण से युक्त होकर घट के अस्तित्व धर्म का अवधारण करता है। यदि इस वाक्य में 'स्यात्' का प्रयोग नहीं होता तो 'अस्तित्व एकान्तवाद' का प्रसंग आ जाता, जो इष्ट नहीं है। क्योंकि घट में केवल अस्तित्व धर्म नहीं है, उसके अतिरिक्त अन्य धर्म भी उसमें हैं। 'स्यात्' शब्द का प्रयोग इस आपत्ति को निरस्त कर देता है। 'एवकार' के द्वारा सीमित अर्थ को वह व्यापक बना देता है। विवक्षित धर्म का असंदिग्ध प्रतिपादन और अविवक्षित अनेक धर्मों का संग्रहण- इन दोनों की निष्पत्ति के लिए 'स्यात्कार' और 'एवकार' का समन्वित प्रयोग किया जाता है।'
सप्तभंगी के प्रथम भंग में विधि की और दूसरे में निषेध की कल्पना है । प्रथम भंग में विधि प्रधान है और दूसरे में निषेध । वस्तु स्वरूपशून्य नहीं है इसलिए विधि की प्रधानता से उसका प्रतिपादन किया जाता है और वह सर्वात्मक नहीं है, अतः निषेध की प्रधानता से उसका प्रतिपादन किया जाता है। जैसे विधि वस्तु का धर्म है वैसे ही निषेध भी वस्तु का धर्म है । स्व- द्रव्य की अपेक्षा से घट का अस्तित्व है । यह विधि है । पर-द्रव्य की अपेक्षा से घट का नास्तित्व है । यह निषेध है। इसका अर्थ यह हुआ कि निषेध आपेक्षिक पर्याय है-दूसरे के निमित्त से होने वाला पर्याय है। किन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है। निषेध की शक्ति द्रव्य में निहित है । द्रव्य यदि अस्तित्वधर्मा हो और नास्तित्वधर्मा न हो तो वह अपने द्रव्यत्व को बनाए नहीं रख सकता। निषेध 'पर' की अपेक्षा से व्यवहृत होता है, इसलिए उसे आपेक्षिक या परनिमित्तक पर्याय कहते हैं । वह वस्तु के सुरक्षा कवच का काम करता है; एक के अस्तित्व में दूसरे को मिश्रित नहीं होने देता 'स्व- द्रव्य की अपेक्षा से घट है' और 'पर-द्रव्य की अपेक्षा से घट नहीं है — ये दोनों विकल्प इस सत्यता को प्रकट करते हैं कि घट सापेक्ष है । वह सापेक्ष है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जिस क्षण में उसका अस्तित्व है, उस क्षण में उसका नास्तित्व नहीं है । अस्तित्व और नास्तित्व (विधि और निषेध ) – दोनों युगपत् हैं, किन्तु एक क्षण में एक साथ दोनों का प्रतिपादन कर सके ऐसा कोई शब्द नहीं है । इसलिए युगपत् दोनों धर्मो का बोध कराने के लिए अवक्तव्य भंग का प्रयोग होता है। इसका तात्पर्य यह है कि दोनों धर्म एक साथ हैं, किन्तु उनका कथन नहीं किया जा सकता।
उक्त विवेचन का सार यह है कि स्याद्वाद के अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य आदि भंग घट वस्तु के द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा पर्याय पर निर्भर करते हैं। घट जिस द्रव्य से निर्मित है, जिस क्षेत्र, काल और पर्याय में है, उस द्रव्य, क्षेत्र, काल और पर्याय की दृष्टि से उसका अस्तित्व है, किन्तु अन्य द्रव्य, अन्य क्षेत्र, अन्य-काल और अन्य पर्याय की अपेक्षा में उसका नास्तित्व है। इस प्रकार घट में अस्तित्व - नास्तित्व दोनों हैं, और इन युगल धर्मों को एक साथ नहीं कहा जा सकता अतः वह (घट) अवक्तव्य भी है।
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अस्त, नास्ति तथा अवक्तव्य- ये तीन मूल भंग हैं। शेष चार भंग इन्हीं मंगों के योग- अयोग से निष्पन्न होते हैं, अतः उनका विवेचन अनावश्यक है । सप्तभंगी से घटादि वस्तु के समग्र भावाभावात्मक, सामान्य- विशेषात्मक, नित्यानित्यात्मक और वाच्यावाच्यात्मक धर्मो का युगपत् कथन संभव है ।
विवेषित उदाहरणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि स्थाद्वाद का महत्त्व जितना दर्शन की गम्भीर पहेलियां लाने में है, उतना ही जीवन की जटिल समस्याओं का निराकरण करने में भी है । यह अनुभवगम्य तथा सापेक्षसिद्ध होने के कारण व्यावहारिक जगत् की भाषा
१. मुनि नथमल जैन न्याय का विकास, पृ० ७०
२. वही, पृष्ठ ७०-७१
३. यशोविजय, जनतर्कभाषा, १९ २०
जैन दर्शन मीमांसा
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