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________________ कषाय (वासनाओ) से मिलकर और उसके साथ चिपककर जीव में जैन दर्शनमें आत्मवाद का शेष भाग (पृष्ठ 104 से) आ घुसते हैं (आस्त्रवन्ति) | कर्म के इस आ घुसने को ही जैन दर्शन में शक्ति की अपेक्षा आत्मा की एकता को स्वीकार 'आस्त्रव' कहा जाता है / पर हममें जो 'संवर' (तप और किया गया है किन्तु अभिव्यक्ति की दृष्टि से आत्माएं भिन्न भिन्न सच्चरित्रता) है (जिसकी विस्तृत व्याख्याएं जैन दर्शन में परिलक्षित हैं / मुनि रामसिंह पत्तियों, .पुष्पों तथा वनस्पतियों तक में उसी होती हैं) वह इस आस्त्रव को ढंक देने की चेष्टा करता है (सं + आत्मा की स्थिति मानते हैं जो मनुष्य के शरीर में है / ' इन्दु मुनि वृणोतीति संवरः) / परिणाम होता है जीव का 'निर्जर' - अर्जित कहते हैं - सभी जीव ज्ञानमय हैं, जन्म मरण से रहित है, जीवप्रदेश की अपेक्षा सभी समान हैं और गुणों की अपेक्षा वे एक कर्मों का क्षय एवं फल स्वरूप मोक्ष, आवागमन के चक्र से अपने अनेकान्तवादी दृष्टिकोण के द्वारा जैन दर्शन में जीव निरसनादात्यन्तिक कर्म मोक्षणं मोक्षः - सर्वदर्शन संग्रह / ) कर्म प्रदेश तथा गुणों की अपेक्षा सभी आत्माओं में समानता तथा सिद्धान्त से बढ़कर चरित्र - जीवन के व्यवहार रूप पर ध्यान जैन एकता स्थापित करते हुए भी अनन्त आत्माओं के अस्तित्व को लोगों को व्यवहारवादी सिद्ध करता है / जैन लोग सम्यग्दर्शन स्वीकार किया है, जो सभी आत्मज्ञान होने पर कर्ममल से विमुक्त सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को 'रत्नत्रय' के रूप में स्वीकार करते होकर परमात्मा बन सकते हैं। हैं और इन्हें मोक्ष का साधन समझते हैं। कुछ लोग इसे जैन लोगों जैन दर्शन में आत्मा को परमात्मा के समकक्ष घोषित किया का व्यवहारवाद कहते हैं / व्यवहारवाद और समन्वयवाद प्रायः गया है / इन्दु मुनि कहते हैं - हे योगी, जो ज्ञानमय परमात्मा है, साथ-साथ चलते हैं / इससे स्पष्ट है कि - जैन दर्शन समन्वयवाद वह मैं हूं और जो मैं हूं वही उत्कृष्ट परमात्मा है, ऐसा विचार को अधिक महत्व देता है | - लोक व्यवहार का तीव्र विरोध उसे कर / अन्यत्र वे बीज तथा वटवृक्ष के उदाहरण द्वारा भी आत्मा अच्छा नहीं लगता। तथा परमात्मा की एकता का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार वट के वृक्ष में बीज स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है और स्यादवाद की दृष्टि जैन धर्मावलंबियों को जागरूक एवं बीज में भी बट का वक्ष रहता है, उसी प्रकार देह में भी उस देव निष्पक्ष सिद्ध करती है / किसी समस्या किसी सिद्धान्त, किसी को विराजमान समझो / ' वे आत्मा को ही शिव, शंकर, विष्णु, व्यक्ति के संबंध में तर्क से बचना, तर्क से भय खाना इस बात का रुद्र, बुद्ध, जिन, ईश्वर, ब्रह्मा, अनन्त तथा सिद्ध आदि अनेक द्योतक है कि तर्ककरनेवाला सहम गया है, वह भय खाता है या नामो से निर्दिष्ट परमात्मा मानते हैं / हीन-भावना (Inferiority Complex) का शिकार बन गया है / 'साँच में आँच क्या' जैन दर्शन का उल्लेख तर्काधार है। जाँच से पत्रिय पाणिय दब्भतिल, सव्व ई जाणि सवण्ण / हिचकना पक्षपात का परिसूचक है / जैनी लोग कहते हैं - पाहुड़दोहा 159 जीवा सयलवि णाणमय, जम्मणमरणविमुक्क / 'पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य जीवपसएसहि सयल सम, सयलवि समुणहिं एक्क / / कार्यः परिग्रहः' अर्थात् न तो तीर्थंकर महावीर के प्रति पक्षपात का जो परमप्पा णाणमउ सो हंउ देउ अणंतु / भाव है न ही सांख्य दर्शन के पुरस्कर्ता कपिलमुनि के प्रति द्वेष जो हंउ सो परमप्पु पस, एहउ आवि णिमंतु // भाव है / 'स्याद्वाद मंजरी-कार की यह घोषणा कि - अपक्षपातो परमात्मप्रकाश द्वितीय अध्याय 175 जं वडमजकहं वीउ फुडु, वीयहं वडु विह जाणु / समय - स्तथोर्हतः' अर्थात् अर्हत् मार्ग निरपेक्ष है, अकारण नहीं तं देहहं देउ वि मुणहि, जो तइलोयपदाणु // है / निष्पक्ष परीक्षण व्यक्ति विशेष की विद्वत्ता, उन्मुक्त दृष्टि एवं र योगसार, 74 कालिक चेतना का परिसूचक है | स्याद्वादी जैनतर्कविद् सभी सो सिउ संकरु विण्हु सो सो रुद्ध वि सो बुद्ध व्यक्तियों, सभी मत मतांतरों को आदर की दृष्टि से देखते हैं' वे सो जिणु ईसरु वंमु सो, सो अणंतु सो सिद्ध / केवल अपने मत को तो स्थापित करते ही हैं दूसरों के मत का मधुकर-मौक्तिक हमारे लिए यदि कोई अच्छा काम करता है, तो उसे हम भूल जाते हैं। और यदि कोई हमारा बुरा करता है, तो वह हमें याद रह जाता है। मतलब यह कि हम अच्छाइयों का संग्रह नहीं करते, बुराइयों का संग्रह करते जाते हैं / बुराइयों का संग्रह जल्दी होता है और फिर उसका प्रदर्शन होने लगता है | हमारी दुकान मानव-मन की है। दुकान ऊँची है, पर अन्दर माल जो है, वह घटिया किस्म का है; ऊँचा नहीं है। दुकान में जो माल है, उसमें संख्यात्मक वृद्धि जरूरी है, पर गुणात्मक वृद्धि शून्य है। दुकान में भूसा-ही-भूसा भरा है, अनाज का दाना देखने को भी नहीं है। ऐसी दुकान किस काम की? - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (109) समय बडा ही सूक्ष्म है, समय न जीता जाय / जयन्तसेन समय समझ, यही सुखद सदुपाय / / www.jainelibrary.org. Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.212229
Book TitleSyadvad ki Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSwarnkiran
PublisherZ_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf
Publication Year
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size3 MB
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