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________________ CATERE ******** Jain Education International .................................... स्थानकवासी जैन समाज की अनुपम संस्था स्थानकवासी श्रमण C जवाहरलाल मुणोत अध्यक्ष- अ० भा० स्था० जैन कॉन्फ्रेंन्स इस सच्चाई को समझने के लिए कोई समाजशास्त्री अथवा मनोवैज्ञानिक होने की जरूरत नहीं है कि जनसाधारण के सर्वसामान्य धर्म की व्याख्या में, जितना महत्त्व धर्म के तात्त्विक विवेचन, धर्म के दर्शन और उसकी संस्कृति का है, उससे कहीं ज्यादा महत्व, धर्म के बाह्य स्वरूप और उसके कलेवर का है। हकीकत तो यह है कि आम आदमी के लिए विद्वानों की दार्शनिक बहसें, ताकिकों के शास्त्रार्थ और साहित्यकारों की मीमांसा बहुत कम मतलब रखती है । उसके लिए तो उसके धर्म का गहन तत्व, धर्म के बाहरी प्रतीक, पहिचान और कर्मकाण्ड द्वारा ही मन के भीतर उतरता है । किसी ईसाई के लिए, एक क्रास (कूस) करुणा, प्रेम और शरणागति की भावना का सबसे प्रबल स्रोत है, आप क्रास के बदले में उनसे ईसाई दर्शन का अर्थ समझा नहीं पायेंगे । आम हिन्दू के लिए मन्दिर से बजती घण्टियाँ, आरती के ढोल और होम का धुंआ — उसके समस्त धार्मिक संस्कारों और आस्थाओं के आधारस्तम्भ हैं । मस्जिद की गुम्बद से पुकारते मुअज्जन की पुकार पर जैसे मुसलमान नमाज के लिए सिजदे में झुक जाता है या फिर मुहर्रम के ताबूत को देख-देखकर, मरसिये गा-गाकर रोने लगता है-उसके मजहब की पहिचान क्या आप इसलाम के एकेश्वरवाद से करने लगेंगे ? मगर जो धर्म, बुनियादी रूप से अमूर्तिपूजक है, निराकारी हैं, उसके अनुयायियों के लिए वह बाहरी कलेवर, वह धर्म का मूर्तिमान स्वरूप क्या होता है, क्या हो सकता है ? अमूर्तिपूजक जनधर्म का सशरीरी प्रतीक-धमण बहुत विविध है जैनधर्म का आयाम । बहुत विशाल शरीर है इसके इतिहास का । और इसके वर्तमान से कहीं ऊँचा, सुपुष्ट और मनोहारी है इसका इतिहास का वृतान्त और इसी जैनधर्म का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग है— इसका स्थानकवासी समाज — जो रूढ़िगत मूर्तिपूजा को नहीं मानता। लेकिन हम भूल न करें, जैन जगत में स्थानकवासी समाज, अपनी इस निजी विशेषता के बाद भी, हिन्दुओं का आर्यसमाज ही नहीं है । अगर स्थानकवासी समाज का वर्तमान रूप दो-ढाई सौ बरसों से ज्यादा पुराना नहीं है तो यह प्रश्न उठ सकता है कि कहीं यह सुधारवादी आन्दोलन, कमी-बेशी आर्यसमाज-सा ही तो नहीं ? लेकिन हम जानते हैं, आर्यसमाज के इतने महत्वपूर्ण काम-काज और अर्थपूर्ण भूमिका के बावजूद, यह धर्म का रूप ले न पाया, केवल पढ़े-लिखे, नवजागरण की पुरुष - पीढ़ी ही इसका अंगीकार कर सकी। आम जनता, विशेष रूप से महिलाओं ने इसे आत्मसात् न किया । वह उनका धर्म न बन सका, केवल कुतूहल और आदर का सुधार भर रहा । परन्तु, स्थानकवासी समाज की स्थिति तो बिलकुल भिन्न है । यह अमूर्तिपूजक धर्म, आज भी और पहिले भी, लाखों-लाखों नर-नारियों का निजी, अविच्छिन्न और समग्र भावनामय धर्म है। इसे केवल सुधारवादी आन्दोलन कहने की हिम्मत कोई भी कर नहीं सकेगा। तब सवाल है, वह कौनसा रहस्य है जिसके कारण, स्थानकवासी जैन समाज, साफतौर पर मूर्तिपूजा से किनारा काट कर भी इतना प्रबल जन साधारण का धर्म बना हुआ है, प्रगति कर रहा है ? अन्य मूर्तिभंजक धर्मों ( यथा - इस्लाम) से इसकी कोई तुलना नहीं क्योंकि इस धर्म की जो बुनियाद है, वहाँ मूर्तिपूजा को भी अत्यन्त महत्व - पूर्ण और ऐतिहासिक स्थान है, जैनधर्म की संस्कृति, सैकड़ों अनुपम, भव्य मन्दिरों और चित्रों में सुरक्षित है और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212226
Book TitleSthanakwasi Jain Samaj ki Anupam Sanstha Sthanakwasi Shraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Munot
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages2
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size391 KB
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