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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य
तिसमुद्दखाकित्तिं दीवसमुद्देसु गहियपेयालं । वन्दे अज्जसमुद्दे, क्खुभियसमुद्दगंभीरं ॥ १७ ॥ ६१
उपर्युक्त गाथाओं में श्यामार्य के बाद संडिल्ल ( शाण्डिल्य ) और उनके बाद श्रार्य समुद्र को पाते हैं । श्रार्य श्याम को प्रथम कालक माननेवाले ( अर्थात् "श्याम" और " कालक " को एक ही व्यक्ति के नाम के पर्याय गिननेवाले) में मुनिश्री कल्याण विजयजी, डॉ० डब्ल्यू ० नॉर्मन ब्राउन आदि सब आधुनिक पण्डित सम्मत हैं । जैन परम्परा में भी यही देखने मिलता है । २ स्थविरावलियों, पट्टावलियों के अनुसार प्रथम काल ऊर्फ श्याम गुणसुन्दर के अनुवर्ती स्थविर और पट्टधर हैं। 3 मेरुतुङ्ग की विचारश्रेणि में भी
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अज्जमहागिरि तीसं, अज्जसुहत्थीण वरिस छायाला । गुण सुंदर चाला, एवं तिसया पणतीसा ॥ तत्तो इगचालीसं, निगोय-वक्खाय कालगायरिश्रो । हत्ती खंदिल (संडिल), एवं चउसय चउद्दसय ॥ रेवइमित्ते छत्तीस, अज्जमंगु वीस एवं तु । चउसय सत्तरि, चउसय तिपन्ने कालगो जाश्रो || चवीस ज्जधम्मे एगुणचालीस भद्दगुत्ते अ । ६४ जैन साहित्य - संशोधक, खण्ड २, अङ्क ३-४, परिशिष्ट रत्नसञ्चय - प्रकरण (अनुमान से विक्रम १६ वीं शताब्दि), जिसमें चार कालकाचार्यों का उल्लेख है, उसमें भी प्रथम कालक श्यामार्य ही माने गये हैं
६१. नन्दी सूत्र ( आगमोदयसमिति, सूरत, ई० स० १६१७ ), पृ० ४६. पट्टावली समुच्चय, भाग १, ( सम्पादक, मु० दर्शनविजय, वीरमगाम, ई० स० १६३३ ), पृ० १३.
डॉ० पीटरसन, ए थर्ड रीपोर्ट ऑफ ऑपरेशन्स इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्युस्क्रिप्ट्स इन ध बॉम्बे सर्कल, (बम्बई, ई० स० १८८१ ) में पृ० ३०३ पर, विनयचन्द्र ( वि० सं० १३२५ ) रचित कल्पाध्ययनदुर्गपदनिरुक्त के अवतरण में किसी स्थविरावली की गाथायें हैं, जहाँ
सूरिबलिरसह साई सामज्जो संडिलो य जीयधरो ।
अज्जसमुद्दो मंगू नंदिल्लो नागइत्थी य ॥ २ ॥
ऐसा पाया जाता है । यही गाथा मेरुतुङ्ग की विचारश्रेणि-अन्तर्गत स्थविराली में भी है।
६२. देखो, ब्राउन, ध स्टोरि ऑफ कालक, पृ० ५-६ और पादनोंध ।
६३. वही, पृ० ५. श्री धर्मसागरगणि-कृत तपागच्छ - पट्टावली में भी " अत्र श्रीश्रार्यसुहस्तिश्री वज्रस्वामिनोरन्तराले १ गुणसुन्दरसूरिः, २ श्रीकालिकाचार्य:, ३ श्रीस्कन्दिलाचार्यः, ४ श्रीरेवतीमित्र सूरिः, ५ श्रीधर्मसूरिः " ऐसा बताया गया है - पट्टावली-समुच्चय, भाग १, पृ० १६ ।
६४. डा० भाउ दाजी ने जर्नल ऑफ ध बॉम्बे ब्रान्च ऑफ ध रॉयल एशियाटिक सोसाइटि वॉ० पृ० १४७-१५७ में मेरुतुङ्ग की स्थविरावली का विवरण किया है। मुनिश्री कल्याणविजयजी ने अपने वीर - निर्वाण सम्वत् और जैनकालगणना, पृ० ६१ पर स्थविरावली या युगपधानपट्टावली की गाथायें दी हैं, वे वही हैं जो मेरुतुङ्ग ने दी हैं ।
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श्यामार्य हुए आर्य महागिरि की परम्परा में जो वाचकवंश रूप से पिछाना गया है, मेरुतुङ्ग ने आर्य महागिरि की शाखा के स्थविरों की अलग गाथायें भी दी हैं :-- “ सूरि बलिस्सह साई सामज्जो संडिलो य जीयधरो । अज्जसमुद्दो मंगु नंदिल्लो नागइत्थी ।" इत्यादि, देखो, जैनसाहित्य संशोधक, २, ३-४, परिशिष्ट, पृ० ५ ।
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