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सुवर्णभूमि में कालकाचार्य
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कथानकों से प्रतीत होता है कि इन लेखकों को सुवर्णभूमि का ठीक पता नहीं रहा होगा। इसी लिए प्रभावकचरित्र के कर्ता (समय वि० सं० १३३४ = ई० स० १२७७) सागर को उज्जैनी में बसे कहते हैं । और दूसरे लेखक सुवर्णभूमि के बजाय स्वर्णपुर कहते हैं। कई लेखक प्रदेश का नाम छोड़ देते हैं या दूर-देश या देशान्तर ऐसा स्पष्ट उल्लेख करते हैं। इस से यह स्पष्ट होता है कि इन पिछले लेखकों के समय में कई परम्पर|यें विच्छिन्न थीं। और कई बातें उनकी समझ में या न सकीं। ऐसे संयोग में हमारे लिए यही उचित है कि हम भाष्यकार, चूर्णिकार, कहाबलीकार और मलयगिरि के कथनों में ज्यादा विश्वास रखखें और हो सके वहाँ तक इन्हीं साक्षियों से कालकविषयक खड़ी होती समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करें। हम देख चूके हैं कि कालक ऐतिहासिक व्यक्ति थे न कि काल्पनिक । निमित्तज्ञानी, अनुयोगकार श्रार्य कालक सुवर्णभूमि में गये थे ऐसा निर्युक्तिकार, भाष्यकार और चूर्णिकार का कहना है जिसमें सन्देह रखने का कोई कारण नहीं ।
लेकिन सुवर्णभूमि किस प्रदेश को कहते थे ? सुवर्णभूमि का निर्देश हमें महानिद्देस जैसे प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। डॉ० मोतीचन्द्र लिखते हैं- " महानिद्देस के सुवर्णकूट और सुवर्णभूमि को एक साथ लेना चाहिये। सुवर्णभूमि, बंगाल की खाड़ी के पूरब के सब प्रदेशों के लिए एक साधारण नाम था; पर सुवर्णकूट एक भौगोलिक नाम है । अर्थशास्त्र ( २/२/२८ ) के अनुसार सुवर्णकुड्या से तैलपर्णिक नाम का सफेद या लालचन्दन आता था। यहाँ का अगर पीले और लाल रंगों के बीच का होता था । सबसे अच्छा चन्दन मैकासार और तिमोर से, और सबसे च्छा अगर चम्पा और अनाम से श्राता था । सुवर्णकुड्या से दुकूल और पत्रोर्ण भी आते थे। सुवर्णकुड्या की पहचान चीनी किलिन् से की जाती है जो फूलान के पश्चिम में था । २४१ सुवर्णभूमि और सुवर्णद्वीप ये दोनों नाम सागरपार के पूर्वी प्रदेशों के लिए प्राचीन समय से भारतवासियों को सुपरिचित थे । जातककथायें, गुणाढ्य की (अभी अनुपलब्ध) बृहत्कथा के उपलब्ध रूपान्तर, कथाकोश और विशेषतः बौद्ध और दूसरे साहित्य के कथानकों में इनके नाम हमेशा मिलते रहते हैं । एक जातककथा के अनुसार महाजनक नामक राजकुमार धनप्राप्ति के उद्देश से सोदागरों के साथ सुवर्णभूमि को जानेवाले जहाज में गया था। दूसरी एक जातककथा भरुकच्छ से सुवर्णभूमि की जहाजी मुसाफिरी का निर्देश करती है । सुप्पारक - जातक में ऐसी ही यात्रा विस्तार से दी गई है । २५
गुणाढ्य की बृहत्कथा तो अप्राप्य है किन्तु उससे बने हुए बुधत्वामि-लिखित बृहत्कथाश्लोकसङ्ग्रह में सानुदास की सुवर्णभूमि की यात्रा बताई गई है । कथासरित्सागर में सुवर्णद्वीप की यात्राओं के कई निर्देश हैं। कथाकोश में नागदत्त को सुवर्णद्वीप के राजा सुन्द ने बचाया ऐसी कथा है । "
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बृहत्कथा के उपलब्ध रूपान्तरों में सबसे प्राचीन है सङ्घदास वाचक कृत वसुदेव हिडि ( रचनाकाल-ई० स० ३०० से ई० स० ५०० के बीच ) । सार्थ के साथ उत्कल से ताम्रलिप्ति (वर्तमान तामलुक् ) की ओर जाते हुए चारुदत्त को रास्ते में लूटेरों की भेंट होती है, लेकिन वह बच जाता है। सार्थ से उसे अलग होना पड़ता है और वह अकेला प्रियंगुपट्टा पहुँचता है जहाँ पहचानवाले व्यापारी की सहाय से वह नया माल ले कर तरी रास्ते व्यापार के लिए जाता है । चारुदत्त अपना वृत्तान्त देता है - "पिछे ... मैंने जहाज को सज्ज किया, उस में माल भरा, खलासियों के साथ नौकर भी लिये... राज्यशासन का पट्टक ( पासपोर्ट )
२४. डा० मोतीचन्द्र, सार्थवाह, पृ० १३४.
२५. जातक, भाग ६ (इंग्लिश में), पृ० २२; वही भाग ३, पृ० १२४; भाग ४, पृ० ८६ और जातकमाला, नं० १४.
२६. कथासरित्सागर (बम्बई - प्रकाशन), तरङ्ग ५४, ३०८६ से आगे, ६५ आगे; तरङ्ग, ५७, ७२ से आगे; पृ० २७६, २६७; तरङ्ग, ८६, ३३, ६२; तरङ्ग, १२३. ११०. कथाकोश (Tawneys Ed.) पृ० २८-२६.
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