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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
महान् तत्वज्ञ
आप एक महान् तत्वज्ञानी पंडित हैं । जैन तत्त्वज्ञान पर आपकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं जिसमें आपने तत्त्वज्ञान को सरलता से अभिव्यक्त किया है। आप द्वारा रचित ग्रन्थ " तत्व - चिंतामणि" जैन तत्वज्ञान का अत्यन्त रोचक ग्रन्थ है । तीन भागों में प्रकाशित यह एक ज्ञानवर्द्धक रचना है । आपके सभी ग्रन्थों में जैनागम का उद्धरणों सहित विस्तृत विवेचन मिलता है ।
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स्पष्ट वक्ता -
आप एक निर्भीक वक्ता हैं। समाज में व्याप्त धार्मिक एवं सामाजिक कुरीतियों एवं पाखण्डों पर आप खुल कर प्रहार करते हैं । अखिल भारतीय जैन श्रमण संघ के पदाधिकारी आपके सुस्पष्ट विचारों से अत्यधिक प्रभावित है ।
आपका दृष्टिकोण सर्वथा असाम्प्रदायिक है । श्रमण संघ के सलाहकार, मंत्री एवं उपप्रवर्तक जैसे तीन-तीन वरिष्ठ पदों पर रहते हुए भी आपके मन में अन्य सम्प्रदायों के प्रति समादर की भावना है। आज के युग की भीषण समस्या है - साम्प्रदायिकता की भावना । साम्प्रदायिकता को दूर करने का एक मात्र मार्ग है कि व्यक्ति विना दुराग्रह के सत्य को समझने का प्रयास करें। जब संही समझ आ जाती है तो साम्प्रदायिकता का भाव तिरोहित हो जाता । इस संबंध में आपका निम्न कथन द्रष्टव्य है - "यह गुरु हमारे कुल का है, यह हमारे सम्प्रदायका है, यह ही हमारा रिवाज है, यही हमारा संघ है, यह जो हमारा ममभाव है, इस ममभाव के रहते अक्सर हम सत्य , को झूठला देते हैं । इस अपने ममभाव में, रागभाव में पड़कर ही अपने धर्म को, सम्प्रदाय को, परंपरा को अच्छा मानते हैं, उसके साथ बराबर जुड़े रहते हैं । लेकिन जब सत्य का दर्शन होता है, उसकी झलक पड़ती है तो विचार
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करते हैं कि भले ही अपना हो, मगर दूषित है तो दूषित ही कहना चाहिए, अधूरा है तो अधूरा ही कहना चाहिए, अपूर्ण को अपूर्ण कहने में कोई बुराई नहीं है । "
आप एक निरंहकारी संत हैं, आप प्रतिभा व पाण्डित्य का प्रदर्शन करने में विश्वास नहीं करते। आप अपने आपको लोकेषणा से दूर रखते हैं । आपकी रचनाओं में विश्व-बंधुत्व व विश्व-जागरण का भाव प्रतिबिम्बित है । विशद अध्ययन
श्रमण दीक्षा ग्रहण करने के बाद आपने पंडितवर्य प्रवर्तक श्री शुक्लचंदजी महाराज तथा गुरुदेव श्रीमहेन्द्रकुमारजी महाराज के सान्निध्य में आगम व आगमेतर साहित्य व अनेक भाषाओं का अध्ययन किया । इतिहास आपका अत्यन्त प्रिय विषय रहा है । आपने जैन धर्म के इतिहास का विशद् अध्ययन किया एवं उसके हार्द तक पहुँचने का प्रयास भी किया ।
साहित्य- निर्माण
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विशद अध्ययनोपरांत आपने लेखन व ग्रन्थों के संपादन का कार्य प्रारंभ किया। आपके द्वारा संपादित “ श्रमणावश्यक सूत्र” सन् १६५८ में मूलपाठ, अनुवाद व टिप्पणि के साथ प्रकाशित हुआ । “तत्व चिन्तामणि” भाग १, २ व ३ की रघना सन् १६६१ से १६६३ तक हुई । " श्रावक - कर्त्तव्य" का प्रकाशन सन् १६६४ में हुआ । श्रावकाचार पर यह एक उत्तम कृति है। पंजाब के कविहृदय सुश्रावक श्री हरजसराय की लोकप्रिय कृति “देवाधिदेव-रचना" का अनुवाद, संपादन व मुद्रण सन् १६६४ में हुआ। इसी वर्ष सुश्रावक लाला रणजीतसिंह कृत “बृहदालोयणा” नामक कृति का अनुवाद व विस्तृत विवेचन प्रकाशित हुआ । महान् संत श्रीगेंडेरायजी महाराज की जीवनी “अनोखा तपस्वी" शीर्षक से सन् १६६५ में ही प्रकाशित हुई । सन् १६६८ में परम श्रद्धेय प्रवर्तक
श्री सुमनमुनि जी की साहित्य साधना
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