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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
२०० पृष्ठों में प्रस्तुत की गई है । लेखक की भाषा सरल, सहज, बोधगम्य तथा प्रवाहमय है । यह ग्रन्थ प्रत्येक जिज्ञासु, विद्यार्थी तथा स्वाध्यायी के लिए पठनीय तथा मननीय है।
पंडितरत्न श्री सुमनमुनिजी म. अनेक भाषाओं के असाधारण प्रतिभाशाली विद्वान् हैं तथा इन भाषाओं के व्याकरण का उन्हें पूर्ण ज्ञान है । वे एक महान् शब्दशिल्पी हैं तथा गंभीरतम विषय का सरलता से विश्लेषण करने की अद्भुत सामर्थ्य रखते हैं । उन्होंने इस ग्रन्थ में
इस पुस्तक का प्रथम संस्करण सन् १६६५ में अलवर में प्रकाशित हुआ और द्वितीय संशोधित संस्करण बैंगलोर में सन् १६६२ एवं तृतीय संस्करण सन् १६६६ में मैसूर में प्रकाशित हुआ ।
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" वृहदालोयणा" ग्रंथ स्थानकवासी जैन समाज में अत्यधिक लोकप्रिय है। पंडितरल श्रीसुमनमुनिजी महाराज ने इसी कृति का सुन्दर अनुवाद व विस्तृत विवेचन १६३ पृष्ठों में प्रस्तुत किया है।
मूल रचयिता
इसकी मूल कृति के रचयिता लाला रणजीतसिंहजी थे जो दिल्ली में रहते थे । वे एक ज्ञानवान् श्रावक थे तथा जवाहरात का व्यापार करते थे । इनको आगम का विस्तृत ज्ञान था । यह कृति पूर्णतः इनकी मौलिक रचना नहीं है क्योंकि इसमें कबीर, तुलसी, रज्जब व नानक आदि के दोहों का भी संग्रह है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि संग्रह का चयन बड़ी सूक्ष्मता व गंभीरता से किया गया है। भौतिक व आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन व्यवहार को तोल कर रखा गया है। इसमें जीवन को छूने वाले प्रत्येक
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जैन तत्वज्ञान के सभी सिद्धांतों का विस्तृत विवेचन किया है जो एक सामान्य जिज्ञासु को भी सरलता से समझ में आ सकता है।
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संक्षेप में यह महान् ग्रन्थ आत्मा के दिव्य ज्ञान की एक श्रेष्ठ कृति है जिसका पारायण प्रत्येक जिज्ञासु को प्रतिदिन करना चाहिए। मैं पूज्य श्री सुमनमुनिजी म. को इस उत्तम श्रमपूर्ण ग्रन्थ की रचना करने के लिए बधाई देता हूँ तथा इस मनीषी श्रमण साहित्यकार की अभ्यर्थना करता हूँ ।
वृहदालोयणा (ज्ञान गुटका )
स्वीकार्य, परिहार्य, चिन्तनीय व व्यवहार की बातों का . सम्यक् विवेचन उपलब्ध है। गंभीर तत्त्व ज्ञान की बातों को इस पुस्तक में सरलता के साथ प्रतिपादित किया गया है। इसकी भाषा सहज व इसका चयन शिक्षाप्रद है । इसी कारण से यह स्वाध्यायियों में अत्यधिक लोकप्रिय है। मूल ग्रंथ की रचना वि.सं. १६३६ में हुई ।
आलोचना का महत्त्व
साधक के लिए प्रतिक्षण जागृत रहना आवश्यक है। उसे अपनी प्रत्येक क्रिया प्रमाद रहित होकर करनी चाहिए तथा निरंतर अपनी भूलों का प्रायश्चित करते रहना चाहिए। आध्यात्मिक क्षेत्र में आगे बढ़ने का यही मार्ग है। आलोयणा या आलोचना की परंपरा जैन समाज में नियमित रूप प्रचलित है। हजारों भाई-बहन इस कृति का पूर्ण या आंशिक पाठ करके अपने जीवन से दुर्गुणों को दूर कर सद्गुणों का संचार करते हैं । विशेषतः इस रचना का पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं पर्यूषण पर्व के सांवत्सरिक अवसर पर पाठ समस्त संघजनों के समक्ष अवश्य किया जाता है ।
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श्रावक कर्तव्य
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